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बिलखती बेटियां, स्तब्ध समाज

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा जब हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने दिया होगा, तब शायद वे कोख में मारी जानी वाली बेटियों की चिंता कर रहे थे। हमारे समय के एक बड़े संकट भ्रूण हत्या पर उनका संकेत था। लेकिन अब इस नारे के अर्थ बदलने से लगे हैं। लगता है कि अब दुनिया में आ चुकी बेटियों को बचाने के लिए हमें नए नारे देने होगें।

छोटी बच्चियों के साथ निरंतर हो रही आपराधिक घटनाएं हमारे समाज के माथे पर कलंक ही हैं। यह दुनिया बेटियों के लिए लगातार असुरक्षित होती जा रही है और हमारे हाथ बंधे हुए से लगते हैं। कोई समाज अगर अपनी संततियों की सुरक्षा भी नहीं कर सकता, उनके बचपन को सुरक्षित और संरक्षित नहीं रख सकता तो यह मान लेना चाहिए सडांध बहुत गहरी है। ऐसे समाज का या तो दार्शनिक आधार दरक चुका है या वह सिर्फ एक पाखंडपूर्ण समाज बनकर रह गया है जो बातें तो बड़ी-बड़ी करता है, किंतु उसका आचरण बहुत घटिया है।

स्त्रियों की तरफ देखने का हमारा नजरिया, उनके साथ बरताव करने का रवैया बताता है कि हालात अच्छे नहीं हैं। किंतु चिंता तब और बढ़ जाती है, जब निशाने पर मासूम हों। जिन्होंने अभी-अभी होश संभाला है, दुनिया को देख रहे हैं। परख रहे हैं। समझ रहे हैं। उनके अपने परिचितों, दोस्तों, परिजनों के हाथों किए जा रहे ये हादसे बता रहे हैं कि हम कितने सड़े हुए समाज में रह रहे हैं। हमारी सारी चमकीली प्रगति के मोल क्या हैं, अगर हम अपने बच्चों के खेल के मैदानों में, पास-पड़ोस में जाने से भी सहमने लगें। किंतु ऐसा हो रहा है और हम सहमे हुए हैं। बेटियां जिनकी मौजूदगी से यह दुनिया इतनी सुंदर है, वहशी दरिंदों के निशाने पर हैं।

कानूनों से क्या होगाः बच्चों और स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर कानूनों की कमी नहीं है। किंतु उन्हें लागू करने, एक न्यायपूर्ण समाज बनाने की प्रक्रिया में हम विफल जरूर हुए हैं।इन घटनाओं के चलते पुलिस, सरकार और समाज सबका विवेक तथा संवेदनशीलता कसौटी पर है। निर्भया कांड के बाद समाज की आई जागरूकता और सरकार पर बने दबावों का भी हम सही दोहन नहीं कर सके। कम समय में न्याय, संवेदनशील पुलिसिंग और समाज में व्यापक जागरूकता के बिना इन सवालों से जूझा नहीं जा सकता। हमारी ‘परिवार’ नाम की संस्था जो पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों की स्थापना का मूल स्थान था, पूरी तरह दरक चुकी है। पैसा इस वक्त की सबसे बड़ी ताकत है और जायज-नाजायज पैसे का अंतर खत्म हो चुका है। माता-पिता की व्यस्तताएं, उनकी परिवार चलाने और संसाधन जुटाने की जद्दोजहद में सबसे उपेक्षित तो बच्चा ही हो रहा है। सोशल मीडिया ने इस संवादहीनता के नरक को और चौड़ा किया है। संयुक्त परिवारों की टूटन तो एक सवाल है ही। ऐसे कठिन समय में हमारे बच्चे क्या करें और कहां जाएं? अवसरों से भरी पूरी दुनिया में जब वे पैदा हुए हैं, तो उनका सुरक्षित रहना एक दूसरी चुनौती बन गया है। भारतीय परिवार व्यवस्था पूरी दुनिया में विस्मय और उदाहरण का विषय रही है, किंतु इसके बिखराव और एकल परिवारों ने बच्चों को बेहद अकेला छोड़ दिया है।

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स्कूल निभाएं जिम्मेदारीः ऐसे समय में जब परिवार बिखर चुके हैं, समाज की शक्तियां अपने वास्तविक स्वरूप में निष्क्रिय हैं, हमारे विद्यालयों, स्वयंसेवी संगठनों को आगे आना होगा। एक आर्थिक रूप से निर्भर समाज बनाने के साथ-साथ हमें एक नैतिक, संवेदनशील और परदुखकातर समाज भी बनाना होगा। संवेदना का विस्तार परिवार से लेकर समाज तक फैलेगा तो समाज के तमाम कष्ट कम होगें। शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता इस काम में बड़ा योगदान दे सकते हैं। सही मायने में हमें कई स्तरों पर काम करने की जरूरत है, जिसमें परिवारों और स्कूलों दोनों पर फोकस करना होगा।

परिवार और स्कूलों में नई पीढ़ी को संस्कार, सहअस्तित्व, परस्पर सम्मान और शुचिता के संस्कार देने होगें। स्त्री-पुरुष में कोई छोटा-बड़ा नहीं, कोई खास और कोई कमतर नहीं यह भावनाएं बचपन से बिठानी होगीं। पशुता और मनोविकार के लक्षण हमारी परवरिश, पढ़ाई- लिखाई और समाज में चल रहीं हलचलों से ही उपजते हैं। मोबाइल और मीडिया के तमाम माध्यमों पर उपलब्ध अश्लील और पोर्न सामग्री इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहे हैं। इसके साथ ही समाज में बंटवारे की भावनाएं इतनी गहरी हो रही हैं कि हम स्त्री के विरूद्ध अपराध को पंथों को हिसाब से देख रहे हैं। निर्मम हत्याएं, दुराचार की घटनाएं मानवता के विरुद्ध हैं। पूरे समाज के लिए कलंक हैं। इन घटनाओं पर भी हम अपनी घटिया राजनीति और पंथिक मानसिकता से ग्रस्त होकर टिप्पणी कर रहे हैं। दुनिया के हर हिस्से में हो रहे हमलों, युध्दों, दंगों और आपसी पारिवारिक लड़ाई में भी स्त्री को ही कमजोर मानकर निशाना बनाया जाता है। यह बीमार सोच और मनोरोगी समाज के  लक्षण हैं।

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पाखंडपूर्ण समाज और शुतुरमुर्गी सोचः समाज की पाखंडपूर्ण प्रवृत्ति और शुतुरमुर्गी रवैया ऐसे सामाजिक संकटों में साफ दिखता है। साल में दो नवरात्रि पर कन्यापूजन कर बालिकाओं का आशीष लेने वाला समाज, उसी कन्या के लिए जीने लायक हालात नहीं रहने दे रहा है। संकटों से जूझने, दो-दो हाथ करने और समाधान निकालने की हमारी मानसिकता और तैयारी दोनों नहीं है। अलीगढ़, भोपाल से लेकर उज्जैन तक जो कुछ हुआ है, वह बताता है कि हमारा समाज किस गर्त में जा रहा है। हमारी परिवार व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, समाज व्यवस्था, धर्म सत्ता सब सवालों के घेरे में है। हमारा नैतिक पक्ष,दार्शनिक पक्ष चकनाचूर हो चुका है। हम एक स्वार्थी, व्यक्तिवादी समाज बना रहे हैं, जिसमें पति-पत्नी और बच्चों के अलावा कोई नहीं है। विश्वास का यह संकट दिनों दिन गहरा होता जा रहा है। शायद इसीलिए हमें परिजनों और पड़ोसियों से ज्यादा हिडेन कैमरों और सर्विलेंस के साधनों पर भरोसा ज्यादा है। भरोसे के दरकने का यह संकट दरअसल संवेदना के छीज जाने का भी संकट है।

कैसे बचेंगी बेटियाः बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा जब हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने दिया होगा, तब शायद वे कोख में मारी जानी वाली बेटियों की चिंता कर रहे थे। हमारे समय के एक बड़े संकट भ्रूण हत्या पर उनका संकेत था। लेकिन अब इस नारे के अर्थ बदलने से लगे हैं। लगता है कि अब दुनिया में आ चुकी बेटियों को बचाने के लिए हमें नए नारे देने होगें। एक बेहतर दुनिया किसी भी सभ्य समाज का सपना है। हमारी संस्कृति और परंपरा ने हमें स्त्री के पूजन का पाठ सिखाया है। हम कहते रहे हैं- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ (जहां नारियों की पूजा होता है, वहां देवता वास करते हैं)। हमारी बुद्धि, शक्ति और धन की अधिष्ठात्री भी सरस्वती, दुर्गा-काली और लक्ष्मी जैसी देवियां हैं। बावजूद इसके उन्हें पूजने वाली धरती पर बालिकाओं का जीवन इतना कठिन क्यों हो गया है? यह सवाल हमारे समाने है, हम सबके सामने, पूरे समाज के सामने। हादसे की शिकार बेटियों की चीख हमने आज नहीं सुनी तो मानवता के सामने हम सब अपराधी होगें, यकीन मानिए।

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