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हूल दिवस : अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ वनवासी संघर्ष की अमिट दास्तां

1855 की वह हूल(संथाल विद्रोह) अंग्रेंजों की जड़ें हिला दी, विद्रोह का डर इक कदर था कि अंग्रेज को मार्शल लॉ लगाना पड़ा और इस हूल को दबाने के लिए सेना को उतारना पड़ा  
एडवर्ड सोरेन

हूलदिवस विशेष

संथाली भाषा में  हूल का अर्थ होता है  विद्रोह! ऐसा ही एक विद्रोह  अंग्रेजो के खिलाफ संथाल परगना  की जमीन से 1855 ई. में  अंग्रेजो के खिलाफ धरती आबा  सिद्धो और कान्हू  के नेतृत्व में हुआ था । ऐसे तो स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई का आगाज 1857 के सिपाही विद्रोह को माना जाता है लेकिन 1857 से पहले एक ऐसा विद्रोह हुआ था जिसने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को  हिला कर रख दिया था, लेकिन अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी से  इतने बड़े और व्यापक जनांदोलन को सिर्फ साहूकारों के खिलाफ आदिवासियों का एक आंदोलन दिखाया|

अंग्रेजो के हुकूमत को अस्वीकार करना, उनको मालगुजारी नहीं देना,अपने आप को स्वतंत्र घोषित करना, किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं करना, समाज को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए लड़ना, अपने हक के लिए लड़ना…. यही तो हूल क्रांति या संथाल विद्रोह का लक्ष्य था, फिर हम इसे स्वतंत्रता समर की पहली लड़ाई क्यों नहीं माने??

आइये हम  समझे कि कैसे उन महान महापुरुषों ने अंग्रेजी हुकूमत के  पैर के नीचे जमीन खिसका दिया ? उनके पास कौन सा ऐसा मैनेजमेंट स्किल था कि सारी बुनियादी सुविधाओं के अभाव होने के बाद भी ,दुर्गम पहाड़ों  के बीच कैसे एक जन आंदोलन खड़ा किया तथा इस आंदोलन के उपरांत संथाल  की सामाजिक एवं भौगोलिक स्थिति में क्या परिवर्तन हुआ?

सिद्धो कान्हू

हूल क्रांति के पूर्व यह क्षेत्र जो आज संथाल परगना के नाम से जाना जाता है बंगाल प्रेसिडेंसी के अन्दर आता था ।यह क्षेत्र पहाड़ियाँ एवं जंगलों से आच्छादित था, जहाँ आना  जाना काफी कठिन था । लोग जंगल झाङियों को काटकर खेती योग्य बनाते थे और उस पर अपना  स्वामित्व समझते थे।

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इधर इस्ट इंडिया कंपनी अपना राजस्व बढाने के लिए जमींदारों की फौज तैयार कर चुकी थी ।ये जमींदार जबरन लगान वसुली करते थे ।इससे पहाड़िया लोग हमेशा भयभीत रहते थे ।लगान चुकाने के लिए इन्हें साहुकार से कर्ज़ लेना पङता था ।ये साहुकार लोग  भी इस कदर अत्याचार करते थे कि उन्हें कर्ज़ चुकाने मे कई पीढ़ियाँ गुजर जाती थीं पर कर्ज़ समाप्त नहीं होता था।  झारखंड राज्य के वर्तमान साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गाँव के भूमिहीन निवासी चुन्नी  मांडी जो वहाँ के ग्रामप्रधान थे ,के चार पुत्र सिद्धू ,कान्हू ,चाँद और भैरव में से सिद्धू को बोंगा ने स्वप्न में कहा कि “जुमींदार, महाजन, पुलिस, राजदेन आमला को गुजुकमाङ “जिसका अर्थ है जमींदार ,महाजन, पुलिस और सरकार के आमला का नाश हो । चूँकि संथाल लोग बोंगा की ही पूजा अर्चना करते थे। इसलिए इस बात पर विश्वास कर चारो भाइयों ने इस स्वप्न को प्रचारित किया और लोगों को यह बताया कि अब जमींदार ,पुलिस ,महाजन और सरकारी अमलों का विनाश होने वाला है। 30 जून 1855 को झारखंड के वनवासियों(आदिवासियों) ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका और 400 गांवों के 50000 से अधिक लोगों ने भोगनाडीह गांव पहुंचकर जंग का एलान कर दिया। यहां वनवासी भाइयों सिद्धो-कान्‍हो की अगुआई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही’ ‘करो या मरो, अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो’ का एलान किया। उन्होंने एक सभा में ‘संथाल राज्य’ की घोषणा कर अपने प्रतिनिधि द्वारा भागलपुर में अंग्रेज कमिश्नर को सूचना भेज दी कि वे 15 दिन में अपना बोरिया-बिस्तर समेट लें। इससे बौखला कर शासन ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयास किया, पर ग्रामीणों के विरोध के कारण वे असफल रहे. अब दोनों भाइयों ने सीधे संघर्ष का निश्चय कर लिया। इसके लिए शालवृक्ष की टहनी घुमाकर क्रांति का संदेश घर-घर पहुंचा दिया गया। परिणाम यह हुआ कि उस क्षेत्र से अंग्रेज शासन लगभग समाप्त ही हो गया। इससे उत्साहित होकर एक दिन 50,000 संथाल वीर अंग्रेजों को मारते – काटते कोलकाता की ओर चल दिये।

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यह देखकर शासन ने मेजर बूरी के नेतृत्व में सेना भेज दी। पांच घंटे के खूनी संघर्ष में शासन की पराजय हुई और संथाल वीरों ने पाकूर किले पर कब्जा कर लिया। सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गये। जिससे कम्पनी के अधिकारी घबरा गये। अतः पूरे क्षेत्र में ‘मार्शल लॉ’ लगाकर उसे सेना के हवाले कर दिया गया। अब अंग्रेज सेना को खुली छूट मिल गयी। अंग्रेज सेना के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र थे, जबकि संथाल वीरों के पास तीर-कमान जैसे परम्परागत हथियार। अतः बाजी पलट गयी और चारों ओर खून की नदी बहने लगी।

इस युद्ध में लगभग 20,000 वनवासी वीरों ने प्राणाहुति दी। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने युद्ध के बारे में अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है, ‘‘संथालों को आत्मसमर्पण जैसे किसी शब्द का ज्ञान नहीं था। जब तक उनका ड्रम बजता रहता था, वे लड़ते रहते थे। जब तक उनमें से एक भी शेष रहा, वह लड़ता रहा। ब्रिटिश सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था, जो इस साहसपूर्ण बलिदान पर शर्मिन्दा न हुआ हो।’ ’इससे घबराकर अंग्रेजों ने विद्रोहियों का दमन प्रारंभ किया।

यहां भी फूट डालो राज करो नीति का अनुसरण करते हुए अंग्रेजों ने यहां के लोगों को ही अपना हथियार बनाया। कई जयचंद सरीखे लोग अंग्रेजों से मिल गए। अंग्रेजों ने सिद्धो कान्हू को पकड़ने के लिए 10000 हजार रुपए इनाम की घोषणा की। विद्रोहियों पर नियंत्रण पाने के लिए क्रूरतापूर्वक  कार्रवाई की जा रही थी और तभी बहराइच में चाँद और भैरव को अंग्रेजों  ने मौत की नींद सुला दिया, तो दुसरी तरफ  सिद्धो और कान्हू को पकड़  कर भोगनाडीह गाँव में ही पेङ से लटका कर 26 जुलाई 1855 फाँसी  दे दी गई।  इस आंदोलन में लगभग 20,000 लोगों ने अपनी प्राणों की आहुति दी।

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हूल क्रांति जनवरी 1856 मे समाप्त हुआ लेकिन इसके परिणाम स्वरूप संथाल परगना का निर्माण का  निर्माण हुआ जिसका मुख्यालय दुमका बना। बाद में 1900 ई. में  मैक परहास कमेटी ने आदिवासियों के लिए बंदोबस्त अधिनियम बनाया जिसमें प्रावधान किया गया कि आदिवासियों का जमीन आदिवासी ही खरीद सकता है तथा क्रेता और विक्रेता का निवास स्थान एक ही थाना के अंतर्गत हो। 1949 का संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम  का आधार बंदोबस्ती अधिनियम ही बना ।संथाल की धरती पर ऐसे महान वीर सपूत का जन्म लेना हम सभी को  गौरवान्वित करता है आज  हूल दिवस के अवसर पर ऐसे महान  स्वतंत्र्या  वीर  को नमन।

(लेखक पूर्व में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, झारखंड प्रांत के प्रांत संगठन मंत्री रह चुके हैं एवं जनजाति क्षेत्र में आपको विशेष कार्य अनुभव प्राप्त है।)

 

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