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 जम्मू-कश्मीर में नवजागरण बेला

प्रो. रसाल सिंह

स्वतंत्र भारत के इतिहास में जम्मू-कश्मीर सर्वाधिक चर्चित और चिंताजनक अध्याय रहा है। इस चर्चा और चिंता का मूल कारण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए रहे हैं। स्वतंत्रता के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में विलयन के समय संविधान में कुछ ‘अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान’ किये गए थे। इन प्रावधानों को अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए के नाम से जाना जाता रहा है। इन विशेष प्रावधानों के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को अन्य राज्यों की तुलना में ‘अस्थायी रूप से कुछ अधिक स्वायत्तता’ प्रदान की गयी थी। जम्मू-कश्मीर राज्य विदेश, रक्षा और दूरसंचार जैसे तीन विषयों के सन्दर्भ में भारत पर निर्भर होने के अतिरिक्त अपना नीति-नियन्ता स्वयं था। यहाँ तक कि उसका दंड विधान भी भारतीय दंड विधान से पृथक रणवीर पीनल कोड के नाम से जाना जाता था। वहाँ की विधानसभा का कार्यकाल भी अन्य राज्य विधानसभाओं से अलग 6 वर्ष का था।

जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने सबसे पहले और सबसे जोरदार ढंग से जम्मू-कश्मीर को अलगाने वाले इन विशेष प्रावधानों का संसद से लेकर सड़क तक और दिल्ली से लेकर श्रीनगर तक विरोध किया। उन्होंने पंडित नेहरू की तुष्टिकरण की नीति और शेख अब्दुल्ला को शह देने की राजनीति का लगातार विरोध किया। उन्होंने शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा शासन-प्रशासन की विविध योजनाओं, सुविधाओं-संसाधनों के वितरण और सरकारी सेवाओं में भागीदारी में जम्मू सम्भाग की उपेक्षा के खिलाफ आन्दोलनरत प्रेमनाथ डोगरा और प्रजा परिषद् का भी साथ दिया। जम्मू-कश्मीर राज्य में जहाँ कश्मीर घाटी को वरीयता और बढ़ावा दिया जा रहा था; वहीं, जम्मू और लद्दाख क्षेत्र की घनघोर उपेक्षा की जा रही थी।  शेख अब्दुल्ला की इस विभाजनकारी और भेदभावपूर्ण नीति को प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का पूर्ण प्रश्रय था। पंडित नेहरू की यह नीति न सिर्फ जम्मू-कश्मीर के आंतरिक एकीकरण की बाधा थी बल्कि जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में पूर्ण विलयन में भी सबसे बड़ी अड़चन थी। स्वाधीनता आन्दोलन की पृष्ठभूमि और गाँधी जी के उत्तराधिकारी होने के कारण स्वतन्त्रताप्राप्ति के समय देश का राजनीतिक आकाश कांग्रेस और नेहरू जी से आच्छादित और आक्रांत था। स्वाधीनता बेला में विपक्ष नाममात्र का ही था। संसद में उसकी स्थिति नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसी ही थी।   लेकिन डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इस सबकी परवाह न करते हुए भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता  की लड़ाई लड़ी। जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण-विलयन और राष्ट्रीय एकीकरण को सुनिश्चित करने के लिए दिया गया उनका नारा –“ एक देश में दो विधान,दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे!” बहुचर्चित रहा है। ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत के एकीकरण और जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में पूर्ण-विलयन की लड़ाई लड़ते हुए ही 23 जून,1953 को श्रीनगर के निकट निशात बाग़ में नज़रबंदी के दौरान उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में असामयिक मृत्यु हुई।

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के बलिदान-दिवस से लेकर 5 अगस्त, 2019 तक “जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है!” और “ कश्मीर हो या गोहाटी, अपना देश अपनी माटी” जैसे नारों ने भारत के राष्ट्रवादी नौजवानों को लगातार आंदोलित किया है। डॉ. मुखर्जी के बलिदान के बाद से अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए को हटाने का मुद्दा लगातार जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण विचारधारात्मक और भावनात्मक मुद्दा रहा है। जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के अधिवेशन और चुनावी घोषणा-पत्र इसकी पुष्टि करते हैं। इसी वैचारिक प्रतिबद्धता के परिणामस्वरूप 5 अगस्त, 2019 को भारतीय जनता पार्टी की नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली प्रचंड बहुमत की केंद्र सरकार ने इन दोनों “अस्थायी और संक्रमणकालीन’ प्रावधानों को हटाकर जम्मू-कश्मीर का भारतीय संघ में पूर्ण विलय कर दिया। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम-2019 को संसद के दोनों सदनों में पारित करते हुए जम्मू-कश्मीर राज्य के दो केंद्रशासित प्रदेश- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख बना दिए गए। लद्दाख को पृथक केन्द्रशासित प्रदेश बनाने की मूल वजह वहाँ के निवासियों द्वारा लगातार की जा रही ऐसी माँग थी। इस माँग का आधार जम्मू-कश्मीर राज्य के शासन-प्रशासन द्वारा लम्बे समय तक लद्दाखवासियों के साथ किया गया भेदभाव और उपेक्षा थी। हालाँकि, आजादी से लेकर जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन तक इस भेदभाव और उपेक्षा के शिकार जम्मू संभाग के लोग भी रहे हैं। कश्मीर के लोग ‘शासक भाव’ और श्रेष्ठता ग्रंथि के शिकार रहे हैं। उनमें जम्मू और लद्दाखवासियों के प्रति उनके दिलोदिमाग में हीनता और हिकारत का स्थायीभाव रहा है। परन्तु अब नयी बनती हुई व्यवस्था में उनके साथ भी भेदभाव की समाप्ति और न्याय की शुरुआत हो चुकी है।

अमीर खुसरो ने ‘गर फिरदौस बर-रूए-ज़मीन अस्त! हमीं अस्त! हमीं अस्तो! हमीं अस्त!’ कहकर जम्मू-कश्मीर प्रदेश के प्राकृतिक सौन्दर्य और सांस्कृतिक समृद्धि की ओर संकेत किया था। कश्मीर भारत की समृद्ध ज्ञान-परम्परा की आदिभूमि और भामह, मम्मट,रुद्रट,कुंतक,वामन, भट्टनायक, क्षेमेन्द्र आनंदवर्धन,अभिनवगुप्त,चरक, कल्हण,विष्णु शर्मा, कालिदास और लालेश्वरी जैसे प्रख्यात और प्रकांड विद्वानों की कर्मभूमि रही है। ज्ञान-विज्ञान और दर्शन की अनुसन्धान भूमि और भारतमाता का सिरमौर कश्मीर कालांतर में राजनीतिक दुर्घटना का शिकार हो गया। निहित स्वार्थ के वशीभूत स्थानीय नेताओं और पड़ोसी पाकिस्तान ने अलगाववाद और आतंकवाद को हवा दी। कश्मीरी नौजवानों को जन्नत के सब्जबाग दिखाकर दिग्भ्रमित कर दिया गया और उनमें से कुछ के हाथ में कलम और किताब की जगह गोला-बारूद और बन्दूक पकड़ा दी। ‘पत्थरबाजी’ को ही उनका भविष्य बना डाला गया। धरना-प्रदर्शन, बंद और तोड़-फोड़, दंगा-फ़साद और खून-ख़राबे का यह प्रायोजित खूनी खेल कई दशक तक जम्मू-कश्मीर में चलता रहा। मुट्ठीभर लोगों ने कश्मीर और कश्मीरियत को ‘हाइजैक’ कर लिया। इनके द्वारा गढ़ी गयी कश्मीर की परिभाषा और इनके ही द्वारा अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर दिया गया उसका परिचय उसके अतीत से मेल नहीं खाता।  इसमें बाजारू और बिकाऊ मीडिया खासकर अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की भी बड़ी नकारात्मक भूमिका रही। उसने खबरों को मसालेदार बनाकर बेचा। यहाँ तक कि ‘कश्मीर की आजादी’ तक की बात की जाने लगी। आज़ाद कश्मीर का नारा पड़ोसी पाकिस्तान के उकसावे और हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे अलगाववादी संगठन के अतिमहत्वाकांक्षी सरगनाओं की सत्ता-लालसा से पैदा हुआ विषवृक्ष था। निःसंदेह, पाकिस्तान पोषित इस विषवृक्ष का बीज “अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए का अस्थायी और संक्रमणकालीन” प्रावधान ही था।  5अगस्त, 2019 को इस विषवृक्ष  को समूल नष्ट कर दिया गया। भारत की प्रचंड बहुमत और उससे भी प्रचंड संकल्प वाली केंद्र सरकार ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए इन दोनों अस्थायी प्रावधानों को निष्प्रभावी करके उपरोक्त विध्वंसक मानसिकता और राष्ट्रद्रोही कारस्तानियों का स्थायी बंदोबस्त  कर दिया।

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने यह निर्णय लेकर भारतीय संघ की शक्ति और संकल्प का ऐतिहासिक उद्घोष किया । गृहमंत्री अमित शाह ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए ऐसे सभी अलगाववादी तत्वों और निर्दोष कश्मीरी नागरिकों को पत्थरबाजी, तोड़-फोड़ और हिंसा के लिए भड़का सकने वाले राजनेताओं को एहतियातन गिरफ़्तार या नज़रबंद करवा दिया। ऐसे नेताओं में पी.डी.पी. की अध्यक्षा और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती, नेशनल कांफ्रेस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला, कांग्रेस के नेता सैफुद्दीन सोज, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कांफ्रेंस के नेता सज्जाद लोन के अलावा अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस के अनेक धडों के  नेता शामिल थे। निश्चय ही,अपनी नज़रबंदी  के दौरान इन नेताओं ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की नज़रबंदी और बलिदान को याद करते हुए पश्चाताप किया होगा।

पाकिस्तानी सेना और आई एस आई की ओर से जम्मू-कश्मीर में छद्म-युद्ध (प्रॉक्सी-वॉर) लड़ रहे आतंकवादी संगठनों ने यह सुनिश्चित किया था कि कोई भी राष्ट्रवादी या भारतीयतावादी पत्रकार कश्मीर घाटी में न टिक पाए  ताकि उनके द्वारा ‘मैन्युफैक्चर्ड एंड मैन्युपुलेटेड’ ख़बरें ही प्रचारित और प्रसारित हों। इन प्रायोजित पत्रकारों और उनकी झूठी-सच्ची ख़बरों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत विरोधी नैरेटिव गढ़ा। पिछले दिनों भारत विरोधी प्रायोजित खबरें लिखने वाले तथाकथित पत्रकारों की भी खबर ली गयी है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर में लागू की गयी मीडिया नीति और आचार-संहिता ने पत्रकारिता और पत्रकारों को अधिक जिम्मेदार और जवाबदेह बनाया है। अब मनगढ़ंत, भड़काऊ और भारतविरोधी ख़बरों के प्रचार-प्रसार को आपराधिक कृत्य माना जायेगा। लोगों को उकसाकर उपद्रव करवाने वाले स्वयम्भू नेताओं की नज़रबंदी के अलावा अस्थायी रूप से इन्टरनेट पर भी रोक लगायी गयी, ताकि सोशल मीडिया (व्हाट्सएप्प, फेसबुक, इन्स्टाग्राम, ट्विटर आदि) के माध्यम से अफवाहें और प्रायोजित खबरें फैलाकर शांति और सौहार्द को बिगाड़ने की नापाक कोशिश न की जा सके। अनुभवी और सक्षम कमांडरों के नेतृत्व में सभी संवेदशील स्थानों पर सुरक्षा बलों की पर्याप्त और मुस्तैद उपस्थिति भी सुनिश्चित की गयी। इन सब सचेत उपायों से लगभग स्थायी बन चुके अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए की विदाई संभव हुई। ये प्रावधान अस्थायी और संक्रमणकालीन होते हुए भी राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण इतने स्थायी बन चुके थे कि माननीय उच्चतम न्यायालय तक को 2018 में यह कहना पड़ा था कि “अस्थायी प्रावधान अनुच्छेद 370 ने बहुत लम्बे समय (लगभग 75 साल) से होने के कारण इतना स्थायित्व प्राप्त कर लिया है कि अब इसकी समाप्ति असम्भव-सी है।” बहरहाल, भारत सरकार ने इस असंभव को सम्भव करते हुए जम्मू-कश्मीर और भारत की जनभावना का सम्मान किया।

पिछला एक साल जम्मू-कश्मीर के लिए निर्णायक रहा है । अब यहाँ जमीनी बदलाव की आधारभूमि तैयार हो चुकी है। पिछले एक साल में आतंकवादी और हिंसक घटनाओं में उल्लेखनीय कमी हुई है। हालाँकि, आतंकवादी संगठन और उनके आका पुरजोर कोशिश कर रहे हैं कि हिंसा और दहशतगर्दी करके माहौल को बिगाड़ा जा सके और अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर यह प्रचारित किया जा सके कि अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए को निष्प्रभावी किये जाने से जम्मू-कश्मीर के बाशिंदे परेशान हैं और प्रतिक्रियास्वरूप इस प्रकार की वारदातों को अंजाम दे रहे हैं। हालाँकि, सुरक्षा-बलों और पुलिस की मुस्तैदी की वजह से उनके मंसूबे पूरे नहीं हो पा रहे हैं । पिछले एक साल में मिली नाकमयाबी की वजह से तमाम आतंकवादी संगठनों और उनके आकाओं में हताशा है। ऐसा लगता है कि वे अपने अस्तित्व की निर्णायक और अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं। इन आतंकवादी संगठनों और हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे अलगाववादी संगठनों की बाहरी और अवैध फंडिंग को भी बहुत हद तक नियंत्रित किया जा चुका है। मुफ्तखोरी के आदी ये अलगाववादी नेता और आतंकवादी संगठन फंडिंग न हो पाने से अब ‘जल बिनु मछली’ की तरह तड़प रहे हैं। उल्लेखनीय है  कि कश्मीर की आज़ादी का राग अलापने वाले इन तथाकथित नेताओं  की फाइव स्टार जीवन-शैली, विदेशी सैर-सपाटे और बीवी-बच्चों का विदेश प्रवास और शिक्षा-दीक्षा; सब हवाला फंडिंग का प्रतिफल था। अब उन्हें आटे -दाल का सही भाव पता चलने लगा है। पाकिस्तान पोषित इन राष्ट्र-द्रोहियों को इनके “सेवाकार्यों” के लिए पैसे और अन्यान्य प्रलोभनों के अलावा तरह-तरह के पुरस्कार भी दिए जाते रहे हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस के पूर्व-अध्यक्ष सैय्यद अली शाह गिलानी को पिछले दिनों दिया गया ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ इसका उदाहरण है। अब आतंकवाद और अलगाववाद की दुकानों का क्रमिक ‘लॉकडाउन’ हो रहा है। सैन्य बल जहाँ आतंकवादियों की अच्छी आवभगत कर रहे हैं; वहीं, पुलिस-प्रशासन द्वारा तथाकथित पत्रकारों,बुद्धिजीवियों, स्वयंसेवी संगठनों के झोलाछापों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भारत विरोधी गतिविधियों और आय के अवैध श्रोतों पर शिकंजा कसा जा रहा है। इन राष्ट्रद्रोही ‘लाउडस्पीकरों’ की बिजली कट जाने से वातावरण में लम्बे समय से व्याप्त नकारात्मकता, निराशा और नफ़रत की धुंध छंट रही है।

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शेख अब्दुल्ला और मुफ़्ती मोहम्मद सईद खानदान की वंशवादी राजनीति से भी जम्मू-कश्मीर का आम नागरिक त्रस्त रहा है। आजकल दोनों ही खानदानों की तीसरी पीढ़ी (शेख अब्दुल्ला के पौत्र उमर अब्दुल्ला और मुफ़्ती मोहम्मद सईद की नातिन इल्तिजा मुफ़्ती) राजनीति कर रही है। विकल्पहीनता के कारण यहाँ विकास और बदलाव के स्थान पर खाने-पीने की राजनीति का बोलबाला रहा है। अभी तक केंद्र सरकार  से मिलने वाली आर्थिक मदद का कोई लेखा-जोखा(ऑडिट) नहीं होता था। इसलिए पैसा जनकल्याण और आधारभूत ढांचे के निर्माण में लगने के स्थान पर सीधे मुट्ठीभर लोगों की जेब में चला जाता था। इसका एक प्रमाण यह है कि केन्द्रशासित प्रदेश बनने के कारण ऑडिट के दायरे में आते ही पिछले एक साल में अनेक सरकारी कार्यालयों में आगजनी हुई और ‘दुर्घटनावश’ अनेक फाइलें जलकर राख हो गयीं। ज़मीनी विकास न होने से स्थानीय निवासियों में और ज्यादा असंतोष और अलगाव बढ़ता था। अब राज्य-स्तरीय कराधान से अर्जित और केंद्र से प्राप्त धनराशि विकास-योजनाओं, आधारभूत ढांचे के निर्माण और बदलाव-कार्यों में लगने से नयी संभावनाओं का सूर्योदय हो रहा है। भ्रष्टाचार और अव्यवस्था काफी हद तक कम हुई है। शासन-प्रशासन में संवेदनशीलता, जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ी है। इसी का परिणाम है कि  नागरिकों में सरकार और सरकारी-तंत्र के प्रति विश्वास-बहाली हो रही है।

31 मार्च, 2020 को केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (राज्य विधि का अनुकूलन) आदेश-2020 अधिसूचित किया था। इस आदेश के तहत राज्य में पूर्व-प्रचलित 129 कानूनों में आंशिक संशोधन किया है और   29 कानूनों को पूर्ण रूपेण निरस्त किया गया है। इसी आदेश में जम्मू-कश्मीर प्रशासनिक सेवा (विकेंद्रीकरण और भर्ती) अधिनियम-2010 के खंड 2 में आंशिक बदलाव करते “ स्थायी निवासी”  शब्द के स्थान पर “अधिवासी” शब्द जोड़ा गया है। इसी संशोधित अधिनियम के खंड 3 ए के अंतर्गत “अधिवासी”  शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए उसे परिभाषित किया गया है। इस परिभाषा के अनुसार कम-से-कम 15 वर्ष या उससे अधिक समय तक जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित  प्रदेश में रहने वाले व्यक्ति “अधिवासी” माने जायेंगे। इसके अलावा केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के शिक्षण-संस्थानों से अपनी 10 वीं/12 वीं की पढ़ाई को मिलाकर कम-से-कम 7 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राएं भी अधिवासी माने जायेंगे। कम-से-कम 10 वर्ष तक जम्मू-कश्मीर में सेवा देने वाले केन्द्रीय सेवाओं, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों/अन्य उपक्रमों, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और अन्य केन्द्रीय स्वायत्तशासी निकायों आदि के कर्मचारी/अधिकारी और उनके बच्चे भी अधिवासी माने जायेंगे। इसके साथ ही,जम्मू-कश्मीर के राहत एवं पुनर्वास आयुक्त कार्यालय में पंजीकृत विस्थापित भी अधिवासी माने जायेंगे।

संभवतः, वर्षों से चले आ रहे राजनीतिक प्रोपेगेंडा और  स्थायीभाव बन चुके तुष्टिकरण के दबाव  में ही केंद्र सरकार ने अधिवासन की पात्रता के इतने कठिन नियम बनाये हैं अन्यथा उसे अन्य राज्यों जैसे ही अधिवासन के सरल नियम बनाकर जम्मू-कश्मीर के विलयन की प्रक्रिया पर पूर्ण-विराम लगाना चाहिए था। संभवतः  सामान्य भारतीय नागरिकों के लिए 8 वर्ष की निवास-अवधि के बाद, जम्मू-कश्मीर में कार्यरत केन्द्रीय कर्मियों और उनके बच्चों को 5 वर्ष की निवास-अवधि के बाद अधिवास प्रमाण-पत्र निर्गत करने की नीति अधिक न्यायपूर्ण, तार्किक और समावेशी होती। इस अधिवासन  नीति में कम-से-कम कश्मीर घाटी की जनसांख्यिकी को बदलने की दिशा में भी साहसिक निर्णय लेने की आवश्यकता थी। यह कश्मीर घाटी की जनसांख्यिकी ही थी जिसने 19 जनवरी, 1990 की बर्फ़ीली रात में 3 हजार से अधिक निर्दोष कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम किया और 3 लाख से अधिक को घर-द्वार और जड़-जमीन से बेदख़ल और विस्थापित किया।  कश्मीर घाटी में न सिर्फ कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की कोई ज़मीनी योजना बनायी जानी चाहिए बल्कि जम्मू-कश्मीर में एक दिन भी सेवा करने वाले भारतीय सेना और अर्ध सैन्य बलों के सेवानिवृत्त अधिकारियों और सैनिकों को कश्मीर घाटी में बसने पर तत्काल अधिवासन अधिकार दिए जाएँ ताकि आतंकवाद और आतंकी मानसिकता की जनसांख्यिकी को संतुलित किया जा सके।

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नयी अधिवास नीति के लागू हो जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में पूँजी निवेश की अपार संभावनाएं हैं। जिसप्रकार सन 1991 के बजट के बाद भारतीय अर्थ-व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए थे, ठीक उसीप्रकार के परिवर्तन के मुहाने पर अभी जम्मू-कश्मीर है। पूँजी-निवेश और आर्थिक-पुनर्नियोजन के लिए उसके द्वार खुल चुके हैं। यह सचमुच एक ऐतिहासिक परिघटना है। पर्यटन, सीमेंट, बिजली, औषधिक सम्पदा, ऊनी वस्त्र, चावल, केसर, फल, मेवा, शहद और दुग्ध-उत्पाद आदि से सम्बंधित यहाँ के उधोग-धंधे और व्यापार आवश्यक पूँजी-निवेश और नयी श्रम-शक्ति, कौशल और प्रतिभा से कई गुना विकसित होने की संभावना है। अगर ये उद्योग-धंधे और व्यापार अपनी पूर्ण-क्षमतानुसार विकसित होते हैं तो इससे स्थानीय युवाओं को रोजगार के अधिकाधिक अवसर मिलेंगे। एकबार फिर उनके हाथ में पत्थर और बंदूक की जगह कलम-किताब और इलेक्ट्रॉनिक गजट होंगे। लगभग 6 महीने से 2G इन्टरनेट की सुविधा बहाल हो गयी है । जल्दी ही 4G इन्टरनेट शुरू होने की भी प्रबल संभावना है। जम्मू-कश्मीर ज्ञान-विज्ञान की उर्वर भूमि रही है। शांति-बहाली होते ही यहाँ अंतरराष्ट्रीय स्तर के शिक्षण-संस्थान खुलने लगेंगे। यहाँ वैष्णो देवी और अमरनाथ धाम जैसे अनेक सर्वमान्य तीर्थस्थल हैं। यहाँ का वातावरण प्रदुषण-मुक्त है और श्रेष्ठतम शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के अनुकूल है। इसलिए यहाँ प्राकृतिक, धार्मिक, शैक्षणिक और स्वास्थ्य पर्यटन के विकास की अपरिमित संभावनाएं हैं। उल्लेखनीय है कि अभी तक जम्मू संभाग के लोक-कलाओं और पर्यटन-स्थलों के विकास एवं प्रचार-प्रसार के प्रति भी सायास उदासीनता बरती गयी है। अब इन संभावनाओं का सुनियोजित विकास और सतत दोहन करने की आवश्यकता है। जम्मू-कश्मीर के नौजवानों को देश की मुख्यधारा में शामिल करके और विकास-योजनाओं में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करके ही पाकिस्तान पोषित आतंकवाद को मात दी जा सकती है।

अनुच्छेद 370 और धारा 35ए की समाप्ति करके भारत ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अपनी सामर्थ्य और स्वीकार्यता का भी परचम फहराया है। पिछले एक साल में बार-बार इस मुद्दे को तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की कोशिशों के बावजूद पाकिस्तान को  सफलता नहीं मिली है। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर मुस्लिम राष्ट्रों के मंच तक पर उसे मुंह की खानी पड़ी है। विश्व के सर्वाधिक सशक्त लोकतंत्र अमेरिका से लेकर यूरोप के अनेक लोकतान्त्रिक राष्ट्रों ने भारत के पक्ष का समर्थन किया है।  इससे पाकिस्तान की खिसियाहट और बढ़ गयी है। जम्मू-कश्मीर के पूर्ण-विलय के बाद पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर( POJK) पर भी भारत की दावेदारी बढ़ गयी है। गिलगिट, बाल्टिस्तान आदि क्षेत्रों में नागरिक आन्दोलन चल रहे हैं। वहाँ के निवासी पाकिस्तानी जुल्मोसितम के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं और सशक्त और संकल्पशील भारत की ओर आशाभरी नज़र से देख रहे हैं।

जम्मू-कश्मीर की राज्य विधान-सभा में क्षेत्रीय असंतुलन रहा है। इसलिए चुनाव आयोग विधान-सभा चुनाव कराने  से पहले वहाँ विधान-सभा क्षेत्रों का परिसीमन करा रहा है। यह परिसीमन कार्य इस वर्ष के अंत तक होने की सम्भावना है। परिसीमन प्रक्रिया के पूर्ण हो जाने के बाद लोकतान्त्रिक व्यवस्था और विकास-प्रक्रिया में सभी क्षेत्रों और समुदायों का समुचित प्रतिनिधित्व और भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। शासन-प्रशासन की कश्मीर केन्द्रित नीति भी संतुलित हो सकेगी और अन्य क्षेत्रों के साथ होने वाले भेदभाव और उपेक्षा की भी समाप्ति हो जाएगी। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में सभी नागरिकों की विश्वासबहाली और भागीदारी सुनिश्चित करना किसी भी राज्य का सर्वप्रमुख कर्तव्य है और यही उसकी सबसे बड़ी चुनौती भी है। आज केंद्र-शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर इस कर्तव्य को पूरा करने की चुनौती स्वीकार करने की दिशा में अग्रसर है।

(लेखक जम्मू-कश्मीर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र कल्याण अधिष्ठाता हैं।)

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