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भविष्य द्रष्टा दीनदयाल उपाध्याय जी

दीनदयाल उपाध्याय जी आज अधिक प्रासंगिक हैं, दीनदयाल उपाध्याय जितने प्रासंगिक 50 साल पूर्व थे, उससे अधिक प्रासंगिक आज है। वे भविष्य द्रष्टा थे, आने वाली पीढ़ियों को ध्यान में रखकर कार्य कर रहे थे।

जब अंग्रेज भारत छोड़कर जा रहा था, तब का राजनीतिक दृश्य हम ध्यान में लाएँ। राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व था, लेकिन अंग्रेज अपने पीछे एक ‘कृतज्ञ राष्ट्र’ के रूप में भारत को छोड़ना चाहते थे, इसलिए संवैधानिक विकास के नाम पर कांग्रेस को अपने उत्तराधिकारी के रूप में विकसित कर रहे थे।

महात्मा गांधी कांग्रेस में कमजोर होते जा रहे थे। 1939 में गांधीवादियों के प्रत्याशी पट्टाभि सीता रमैया नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सामने चुनाव हार गए। अंग्रेजों को भारत को कृतज्ञ राष्ट्र के साथ-साथ कमजोर राष्ट्र भी बनाना था, अतः उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से द्वि-राष्ट्रवादी मुसलिम लीग का भी विकास किया। ये दोनों लक्ष्य उन्होंने प्राप्त भी किए।

कृतज्ञ राष्ट्र ने आजाद भारत का प्रथम गवर्नर जनरल लार्ड माउण्ट बेटन को बनाया तथा ब्रिटिश संसद द्वारा पारित अधिनियम के अधिष्ठान पर सत्ता का हस्तांतरण किया, जो संवैधानिक विकास की प्रक्रिया अंग्रेज ने प्रारंभ की थी उसको जारी रखा। मुसलिम लीग ने 1940 में पाकिस्तान की स्थापना का प्रस्ताव रखा तथा बंगाल में सीधी कार्यवाही की, अंग्रेज ने बंटवारे का प्रस्ताव रखा, कांग्रेस ने उसे भी स्वीकार कर लिया। महात्मा गांधी ये दोनों ही बातें नहीं चाहते थे। उन्होंने प्रथम 15 अगस्त के उत्सव का बहिष्कार किया। उन्होंने पीड़ा के साथ कहा, ‘आज मेरी कोई नहीं सुनता है।’

वह 1939 का ही वर्ष था जब युवा दीनदयाल ने अपनी स्नातकीय पढ़ाई कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज से पूर्ण की थी। राष्ट्रीय घटनाचक्र के वे तीक्ष्ण अध्येता थे। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये संघ के स्वयंसेवक तथा बाद में जीवनव्रती प्रचारक बन गए। अंग्रेज ने भारत को कृतज्ञ राष्ट्र बनाने के लिए तथा भारत को विभक्त करने की जो रणनीति रची थी, रा.स्व.संघ उसके खिलाफ था।

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दीनदयाल जी संघ के उत्तर प्रदेश सहप्रांत प्रचारक बने। अंग्रेज की इन दोनों योजनाओं का विफल करने के लिए जिस प्रकार की क्षात्रतेज संपन्न सांस्कृतिक धारा की आवश्यकता थी उसके लिए उन्होंने दो महापुरुषों को चुना। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य एवं जगद्गुरु शंकराचार्य के जीवन पर उन्होंने दो उपन्यास लिखे। संवैधानिक प्रक्रिया एवं द्वि-राष्ट्रवाद के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले साहित्य का निर्माण किया। ‘पांचजन्य’ साप्ताहिक, ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक एवं दैनिक ‘स्वेदश’ का प्रकाशन प्रारंभ किया।

अंग्रेज की उत्तराधिकारी बनने को आतुर कांग्रेस इससे तिलमिला गई। द्वि-राष्ट्रवाद के खिलाफ संगठित राष्ट्रीय शक्ति को उसने सांप्रदायिकता करार दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा पोषित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पाश्चात्य फासिज्म की संज्ञा दी। अंग्रेजों के जाने तथा भारत विभाजन होने की अनेक प्रतिक्रियाएँ भारत में हो रही थी। तभी एक ‘पागल’ कार्यवाही हुई, महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई। कांग्रेस ने इस घटना का दुरुपयोग करते हुए रा.स्व.सघ पर प्रतिबंध लगा दिया। प्रचंड सत्याग्रह हुआ, कांग्रेस का झूठ उजागर हुआ, रा.स्व.संघ से प्रतिबंध हटा एवं नवीन राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। दीनदयाल उपाध्याय इस नवीन दल के महामंत्री चुने गए। 1951 में दीनदयाल जी महामंत्री चुने गए, 1952 में ही प्रथम चुनाव हुआ। आजादी के आंदोलन के आभामंडल के साथ कांग्रेस सत्तासीन हुई। भारत के संसद में विपक्ष कौन था?वामपंथी साम्यवादी व समाजवादी। कांग्रेस ने तो द्वि-राष्ट्रवाद के आधार पर भारत का विभाजन स्वीकार किया था वामपंथी तो उनसे भी ज्यादा खतरनाक यानी बहुराष्ट्रवादी थे। वे भारत का और विभाजन चाहते थे, संघात्मकता का सहारा लेकर उन्होंने इसका प्रयत्न भी किया, भाषावार राज्य रचना के लिए जो देश में हिंसक आंदोलन हुए, उसके पीछे वामपंथी ही थे।

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पक्ष-विपक्ष की ऐसी राजनीति में दीनदयाल उपाध्याय एवं भारतीय जनसंघ को भारत माता की जयाकांक्षी राजनीति बुननी थी। सौभाग्य से तब डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे, वे तब की संसद के प्रखरतम राष्ट्रवादी स्वर थे। जनसंघ को हालांकि संसद में तीन ही स्थान प्राप्त थे, लेकिन अनेक छोटे दलों को जोड़कर उन्होंने एक ‘लोकतांत्रिक गठबंधन’ बनाया, जिसमें 38 सांसद हो गए थे। यह सौभाग्य लंबा नहीं चला 1953 में ही डॉ. मुखर्जी कश्मीर को भारत में विलयित करने के युद्ध में शहीद हो गए। नौजवान दीनदयाल ही अब इस नवीन दल के खेवनहार थे। भारत की संसद में गैर-कांग्रेसी तथा गैर-वाम राष्ट्रवादी विपक्ष का ताना-बाना बुनना था। दीनदयाल उपाध्याय ने इस चुनौती का सामना किया। भारत के लोकतंत्र को अपेक्षित, विपक्ष के स्तम्भ को उन्होंने गढ़ा।

57, 62, व 67 के आम चुनावों जनसंघ राजनीतिक व वैचारिक रूप से आगे बढ़ता रहा, 1967 के चुनावों के बाद भारतीय जनसंघ कांग्रेस के बाद सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर सामने आया। सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट सभी पीछे रह गए। इसी राष्ट्रवादी विपक्ष को भारत की राजनीति का सकारात्मक विकल्प बनाना था, उसका ताना-बाना भी उन्होंने बुन लिया था, लेकिन नियति प्रतिकूल थी 1968 के प्रारंभ में ही निर्मम हत्या ने उन्हें हमसे छीन लिया।

सकारात्मक विकास की रूपरेखा उन्होंने 1964-65 में ‘एकात्म मानववाद’ के रूप में प्रस्तुत की थी। भारत के लोकतंत्र, शिक्षा व अर्थनीति के भारतीयकरण का आह्वान किया था। जनपदों तक विकेंद्रित एकात्म शासन की संकल्पना प्रस्तुत की थी। भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अधिष्ठान पर राष्ट्र एवं विश्व की एकात्मता की अवधारणा प्रस्तुत की थी। पाश्चात्य ढ़ांचे का क्रमशः विगलन एवं भारतीयता परक आधुनिक व्यवस्था के रूपायन की राजनीति वे बुन रहे थे। भविष्य पीढ़ियों को यह काम देकर वे चले गए। भारत की जनता ने राष्ट्रवाद के स्वर को रूप में भाजपा को सत्ता सौंपी है। राजनीतिक सत्ता से बड़ी है सामाजिक सत्ता, ‘लोकमत परिष्कार’ के माध्यम से सामाजिक सत्ता को राष्ट्रजीवन में अधिष्ठित करना है, राजनीतिक सत्ता इसमें सहयोगी होगी, मगर निर्णायक नहीं। सत्तोन्मुखी राजनीति को समाजोन्मुखी बनाना होगा। दीनदयालजी ने कहा था, ‘मैं राजनीति में संस्कृति का राजदूत हूँ।’ इसके मर्म को समझते हुए वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को अपना कर्तव्य सुनिश्चित करना होगा।

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(लेखक एकात्म मानव शोध संस्थान के निदेशक हैं।)

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