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सर्व-समावेशी और समयानुकूल है राष्ट्रीय शिक्षा नीति

प्रो. रसाल सिंह

भारतीय ज्ञान-परंपरा के नवसंधान द्वारा ‘भारतीय समाज का नवजागरण’ इस नीति का ध्येय है। ‘गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा तक सबकी पहुँच’ सुनिश्चित करना इस शिक्षा नीति की केन्द्रीय चिंता है। इक्कीसवीं सदी की आवश्यकताओं और चुनौतियों के मद्देनज़र यह शिक्षा नीति छात्र-छात्राओं के समग्र और सर्वांगीण विकास पर बल देती है। इस नीति में नयी शिक्षण, अधिगम और मूल्यांकन पद्धतियों को अपनाते हुए शिक्षा को कौशल आधारित बनाने पर जोर है। ‘स्टार्स’ नामक प्रोजेक्ट भी ऐसी ही एक पहल है। यह स्कूली शिक्षा के कायाकल्प की परियोजना है।                                                                            जैसा कि हम जानते हैं कि परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला होता है और माँ उसकी प्रथम और सर्वाधिक प्रभावी शिक्षक होती है। माँ और परिवार के वातावरण से अर्जित गुण और संस्कार बालक के चरित्र और व्यक्तित्व की आधारशिला होते हैं। इस नींव की मजबूती से ही बालक के भविष्य की गगनचुंबी मीनार निर्मित होती है। इसके बाद ही विद्यालयी शिक्षा और उच्च शिक्षा का महत्व होता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 उपरोक्त सभी शिक्षण सोपानों को समुचित महत्व देते हुए उनमें आमूल-चूल बदलावों की प्रस्तावना करती है। यह उत्साहवर्धक समाचार है कि केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की दिशा में तेजी से काम करना शुरू कर दिया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तमाम प्रस्तावों और प्रावधानों को अमलीजामा पहनाने के लिए न सिर्फ केन्द्रीय स्तर पर बल्कि राज्यवार ‘कार्य-समूह’ गठित किये जा रहे हैं। और भी कई प्रोजेक्ट्स पर काम चल रहा है। मसलन, ‘स्टार्स’ (स्ट्रेंथनिंग टीचिंग-लर्निंग एंड रिजल्ट्स फॉर स्टेट्स) एक ऐसा ही प्रोजेक्ट है। इसके लागू होने के बाद स्कूल परिसरों से ‘तोतारटंत’ संस्कृति समाप्त होगी और प्रारम्भिक बालशिक्षा का सशक्तिकरण होगा। राष्ट्रीय मूल्यांकन केंद्र के रूप में ‘परख’ (परफॉरमेंस असेसमेंट,रीव्यू एंड एनालिसिस ऑफ़ नॉलेज फॉर होलिस्टिक डवलपमेंट) की स्थापना द्वारा सभी राज्यों के अधिगम परिणामों का मानकीकरण किया जायेगा। इस परियोजना द्वारा स्कूलों में व्यावसायिक शिक्षा को भी प्रोत्साहन दिया जायेगा। इसके अंतर्गत किसी कारण किसी स्कूल के बंद होने, आधारभूत ढांचे के नष्ट होने, सुविधाओं और संसाधनों के अभाव जैसी समस्याओं का तत्काल समाधान करने की व्यवस्था बनायी जाएगी। साथ ही, विद्यालयों में सूचना-तकनीक के प्रयोग को प्रोत्साहित करने हेतु उसका आधारभूत ढांचा भी विकसित किया जायेगा। तकनीक विश्व बैंक और भारत सरकार के आर्थिक सहयोग से सबसे पहले यह प्रोजेक्ट हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, केरल, और ओडिशा में शुरू होगा। इसके अलावा एशियन विकास बैंक के सहयोग से गुजरात, तमिलनाडु,उत्तराखंड, झारखंड,और असम में यह प्रोजेक्ट प्रारम्भ करने की योजना है। इसके बाद क्रमशः अन्य राज्यों में भी इसे लागू किया जायेगा।

यह शिक्षा नीति छात्रों को शिक्षा-व्यवस्था का सर्वप्रमुख हितधारक मानती है। उच्चतम गुणवत्तायुक्त शिक्षण-अधिगम प्रक्रियाओं के लिए जीवंत, गतिशील, आनन्दमयी और सर्व-सुविधायुक्त (आवासीय) परिसर की अनिवार्यता को रेखांकित करती है। समाज के वंचित तबकों- दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, भारतीय भाषाभाषी समुदायों, ग्रामीण समुदायों और आर्थिक रूप से असमर्थ समुदायों तक गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा की पहुँच और उसकी वहनीयता (एफोर्डेबिलिटी) इसकी केन्द्रीय चिंता है। यह शिक्षा नीति पूर्व-विद्यालय से पीएच.डी. तक के शिक्षार्थी के लिए क्रमबद्ध ढंग से सीखने के लिए संस्कारों, जीवन-मूल्यों और रोजगारपरक और जीवनोपयोगी कौशलों का निर्धारण करती है। युवा पीढ़ी द्वारा अर्जित ये मूल्य और कौशल भारत को सच्चे अर्थों में एक लोकतान्त्रिक, न्यायपूर्ण, समरस, समतामूलक और जनकल्याणकारी राष्ट्र के रूप में विकसित होने में सहायता करेंगे। ये गुण भारतीय अर्थ-व्यवस्था को ज्ञान-आधारित अर्थ-व्यवस्था के रूप में विकसित होने में भी सहायक होंगे। शिक्षार्थी आजीविका के प्रति आश्वस्त होकर देश की आर्थिक-सांस्कृतिक प्रगति में अपना अधिकतम योगदान दे सकेंगे। यह शिक्षा नीति तथाकथित विशेषज्ञता के नाम पर अबतक ग्लोरिफाइड ‘कूप मंडूकता’ को अपदस्थ करते हुए शिक्षार्थी के बहुआयामी विकास पर बल देती है। अल्पज्ञता के बरक्स बहुज्ञता और एकांगिकता के बरक्स बहुलता और बहु-विषयकता पर इस नीति का विशेष ध्यान है।

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उच्च शिक्षा की वर्तमान पारिस्थितिकी में सुविधा-संपन्न वर्गों का वर्चस्व है। वर्तमान उच्च शिक्षा की पहुँच समाज के अत्यंत सीमित हिस्से तक ही है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिलाएं, भारतीय भाषाभाषी समुदाय, ग्रामीण समुदाय और आर्थिक रूप से असमर्थ समुदाय अभीतक इसके दायरे से बाहर हैं। उच्च शिक्षा क्षेत्र में इन तबकों को आकर्षित करने और उन्हें अपनी पढ़ाई/कार्यक्रम निर्विघ्न पूरा करने के लिए उचित प्रोत्साहन और सहयोग देने का कोई संवेदनशील और विश्वसनीय तंत्र अभीतक विकसित नहीं हो सका है। लगभग सभी सार्वजनिक वित्त पोषित  महाविद्यालयों और अधिकांश विश्वविद्यालयों में साधनों, संसाधनों और शोध-ढांचे और निधियों का जबर्दस्त अभाव है। अनेक (सैकड़ों) महाविद्यालयों की एक ही विश्वविद्यालय से सम्बद्धता के कारण उन महाविद्यालयों में स्नातकस्तरीय शिक्षा का स्तर प्रायः बहुत ख़राब है और उनकी भूमिका डिग्री बांटने तक सीमित है। वंचित वर्ग प्रायः इन्हीं गुणवत्ताहीन स्थानीय संस्थानों में पढ़ने को अभिशप्त हैं, क्योंकि उनके पास साधनों, सुविधाओं और जागरूकता का अभाव है। अच्छे संस्थानों में प्रवेश के लिए भारी प्रतिस्पर्धा है, जिसमें इन साधन-सुविधाहीन ‘अभागों’ का टिक पाना असंभव-प्रायः होता है। परिणामस्वरूप, ये वर्ग क्रमशः गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के दायरे से बाहर होते जा रहे हैं।

यह नीति लैंगिक संतुलन और संवेदनशीलता के प्रति विशेष रूप से सजग है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का प्रभाव इस समतामूलक और समावेशी शिक्षा नीति पर साफ़ परिलक्षित होता है। इन वंचित वर्गों को अकादमिक सहयोग और आवश्यक परामर्श देने के लिए ‘सहायता केंद्र’ खोलने का भी प्रावधान किया गया है। ये सहायता केंद्र इन वंचित वर्गों की न सिर्फ गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षण संस्थानों में पहुँच सुनिश्चित करेंगे; बल्कि उनका सफल और सुखद ‘रिटेंशन’ भी उन्हीं का दायित्व होगा। संस्थानों द्वारा वंचित वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए ‘ब्रिज कोर्स’ भी संचालित किये जायेंगे; ताकि उनके और सुविधासंपन्न छात्र-छात्राओं के बीच की खाई को पाटा जा सके। ‘ड्रॉपआउट’ की समस्या का समाधान खोजने के लिए और वंचित वर्गों को एकाधिक अवसर देने के लिए यह प्रावधान किया गया है।

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 सकल घरेलू उत्पाद का कम-से-कम 6% शिक्षा पर व्यय करने का संकल्प व्यक्त करती है। हालाँकि, सन् 1968 की शिक्षा नीति और सन् 1986/92 की शिक्षा नीति में भी इस बात की अनुशंसा की गयी थी। अभी शिक्षा पर कुल व्यय सकल घरेलू उत्पाद के 4.43 % के आसपास है। संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, जर्मनी जैसे अनेक देशों में शिक्षा पर व्यय सकल घरेलू उत्पाद का 10% तक है। भारत सरकार सार्वजनिक शिक्षा में पर्याप्त निवेश करके ही भारतीय समाज को एक ज्ञान समाज और भारत को एक अंतरराष्ट्रीय ज्ञान-केंद्र बनाया जा सकता है। भारत सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला देश है। इस युवा जनसंख्या का जनसांख्यिकीय लाभ लेने के लिए इसे शिक्षित और कौशलयुक्त करना होगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सार्वजनिक शिक्षा में पर्याप्त निवेश करके उसे सर्व-समावेशी और गुणवत्तापूर्ण बनाना होगा। इस नीति में शिक्षा के ढांचे में जिन आमूल-चूल बदलावों और नवाचारों की परिकल्पना की गयी है, उनके लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता होगी।

अभी देश की लगभग तीन-चौथाई  युवा पीढ़ी उच्च शिक्षा के दायरे से बाहर है। इसमें सबसे बड़ी संख्या दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, ग्रामीणों, भारतीय भाषाभाषियों की है। इन सबको उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए प्रेरित करना और उत्प्रेरित समूहों और समुदायों के लिए गुणवत्तापूर्ण और वहनीय सार्वजनिक शिक्षा की उपलब्धता और पहुँच सुनिश्चित करना इस शिक्षा नीति की सबसे बड़ी चुनौती होगी। यदि यह शिक्षा नीति यथा-प्रस्तावित धरातल पर लागू हो पाती है और स्व-घोषित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल होती है, तो इक्कीसवीं सदी भारत और भारतवासियों की सदी होगी।

यह शिक्षा नीति प्रत्येक जिले में कम-से-कम एक सार्वजनिक वित्त पोषित नए बहु-विषयक महाविद्यालय/विश्वविद्यालय की स्थापना या वर्तमान संस्थान के उन्नयन की प्रस्तावना करती है। ये नवनिर्मित उच्च शिक्षा संस्थान सन् 2040 तक लक्षित नामांकन संख्या तक पहुँचेंगे। सन् 2018 में सकल नामांकन अनुपात 26.3% है। इसे सन् 2035 तक 50% करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। इसके लिए वंचित क्षेत्रों और तबकों तक उच्च शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करनी होगी और इन क्षेत्रों में सार्वजनिक वित्त पोषण वाले उच्च स्तरीय उच्च शिक्षा संस्थान पर्याप्त संख्या में खोलने होंगे। वंचित वर्गों के लिए निजी और सार्वजनिक, दोनों ही प्रकार के संस्थानों में भारी संख्या में छात्रवृत्तियां और निःशुल्क शिक्षा देने का प्रावधान किया गया है, ताकि कोई भी शिक्षार्थी संसाधनों के अभाव में उच्च शिक्षा से वंचित न रह जाये। राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल का व्यापक विस्तार करने का भी प्रस्ताव है। सरकार की ओर से आई.आई.टी. और आई.आई.एम. जैसे उच्च स्तरीय, गुणवत्तापूर्ण और बहु-विषयक शिक्षा और शोध विश्वविद्यालय स्थापित किये जायेंगे। सभी बहु-विषयक उच्च शिक्षण संस्थानों में स्टार्ट अप, इन्क्यूबेशन सेंटर, प्रौद्योगिकी विकास केंद्र आदि की स्थापना की जायेगी। ये संस्थान अकादमिक-उद्योग जुड़ाव और अकादमिक-सामाजिक जुड़ाव पर अधिकतम ध्यान केन्द्रित करते हुए अनुसन्धान और नवाचार में प्रवृत्त होंगे। इससे गुणवत्तापूर्ण और वहनीय शिक्षा स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हो सकेगी। उच्च स्तरीय बहु-विषयक शिक्षा की स्थानीय उपलब्धता के प्राथमिक लाभार्थी तमाम वंचित वर्गों के शिक्षार्थी होंगे। इस नीति में उपरोक्त संकल्प को फलीभूत करने के लिए सार्वजनिक शिक्षा के पर्याप्त वित्त पोषण की जरूरत को भी बारंबार रेखांकित किया गया है।

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स्थानीय/भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में चुनते हुए बहु-विषयक स्नातक शिक्षा की ओर बढ़ने का संकल्प इस नीति में अभिव्यक्त होता है। उच्च शिक्षा को अंग्रेजी और औपनिवेशिकता की जकड़न से बाहर निकालकर यह नीति हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को ज्ञान-सृजन और अनुसन्धान की माध्यम भाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने की प्रस्तावना करती है। उल्लेखनीय है कि अभीतक भारत में उच्च शिक्षा क्षेत्र में शिक्षा-माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं की घोर उपेक्षा होती रही है। अंग्रेजी राजरानी और भारतीय भाषाएं नौकरानी बनी हुई हैं। भारतीय भाषाओं की इस उपेक्षा ने न सिर्फ अधिगम परिणामों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है, बल्कि वंचित वर्गों को उच्च शिक्षा से विरत भी किया है। अनेक सर्वेक्षणों में यह बात सामने आयी है कि उच्च शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएं न होने से वंचित वर्गों के अधिसंख्य शिक्षार्थी या तो उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश ही नहीं ले पाते या फिर बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं। यह शिक्षा नीति माध्यम के रूप में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को अपनाने पर बल देकर इन वर्गों को बड़ी राहत और अवसर देती है।

इस शिक्षा नीति में पाठ्यक्रमों/संस्थानों में प्रवेश और निकास के कई विकल्प होंगे। यह समयावधि की सीमाओं से मुक्ति प्रदान करते हुए आजीवन सीखने की संभावनाओं को प्रोत्साहित करने वाली पहल है। हम जानते हैं कि भारत जैसे विकासशील देश में स्कूली शिक्षा हो या उच्च शिक्षा; संसाधनों के अभाव में शिक्षार्थियों का ‘ड्रॉपआउट रेट’ बहुत ज्यादा है। यह स्थापित सत्य है कि ‘ड्रॉपआउट’ होने वाले शिक्षार्थियों में वंचित वर्गों- दलित, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यक, ग्रामीण, भारतीय भाषाभाषी आदि  समुदायों की संख्या सर्वाधिक है। स्नातक उपाधि 3 या 4 वर्ष की होगी। 1 साल पूरा करने पर सर्टिफिकेट, 2 साल पूरा करने पर डिप्लोमा, 3 साल के बाद स्नातक की डिग्री देने का प्रस्ताव है। 4 वर्षीय स्नातक कार्यक्रम करने पर मेजर और माइनर विषयों के चयन की सुविधा होगी तथा रिसर्च प्रोजेक्ट करने का भी अवसर होगा और ‘शोध सहित स्नातक डिग्री’ प्राप्त करने का विकल्प होगा। 3 वर्षीय स्नातक करने वालों के लिए स्नातकोत्तर 2 साल (जिसका कि दूसरा साल शोध केन्द्रित होगा) का और 4 वर्षीय स्नातक करने वालों के लिए स्नातकोत्तर 1 साल का होगा। वस्तुतः 4 वर्षीय स्नातक कार्यक्रम करने की वजह ‘ड्रॉपआउट’ होने वाले छात्र-छात्राओं को उनकी अध्ययन अवधि के अनुसार कोई-न-कोई सर्टिफिकेट/डिप्लोमा/डिग्री प्रदान करके उनकी अध्ययन अवधि को बर्बाद होने से बचाया जा सकेगा। ये प्रमाण-पत्र और इस अवधि में अर्जित कौशल उन्हें रोज़गार-प्राप्ति में भी सहायता करेंगे। इसके अलावा अपने स्नातक कार्यक्रम को बीच में छोड़ने वाले शिक्षार्थी परिस्थितियां अनुकूल होने पर पुनः प्रवेश लेकर आगे की पढ़ाई पूरी करते हुए अपना कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न कर सकेंगे। निश्चय ही, इस प्रावधान से वंचित वर्गों के शिक्षार्थियों को सर्वाधिक लाभ होगा।

(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र कल्याण अधिष्ठाता हैं।)

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