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भारतीय संस्कृति के तत्त्व में निहित है महामारी से बचाव के उपाय

डॉ प्रवेश कुमार

वर्तमान में दुनिया जहां कोरोना नामक महामारी से ग्रस्त है, लाखों की संख्या में लोगों ने अपना जीवन गंवाया है वहीं भारत में इस महामारी का उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना की दुनिया ने अपेक्षा की थी, क्योंकि यहां संख्या की विशालता इतनी है कि पश्चिम के कई राष्ट्र समाहित हो जायेंगे। इन सबके बावजूद भी भारत कभी भी विश्व अथवा मानवता के लिए खतरा बनकर नहीं उभरा। यह तथ्य ध्यातव्य है की आज तक जितनी भी महामारी दुनिया में आयी सबकी शुरुआत हमेशा से तीसरी दुनिया अर्थात् विकासशील के देशों से ही हुई। ये देश ही सर्वप्रथम किसी महामारी से ग्रस्त हुए और दुनिया के विकसित देश प्रायः इससे अपनी सुरक्षा ही करते रहे, लेकिन ये कोरोना महामारी जिसकी शुरुआत किसी विकाशील देश नहीं बल्कि चीन, इटली अमेरिका जैसे अधिक विकसित राष्ट्रों से प्रारम्भ हुई । इसमें एक बात ध्यान देने योग्य है की इन विकसित राष्ट्रों में से अधिकतर देशों की जनसंख्या का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा बूढ़ा हो चुका है, इसलिए इन देशों में मृत्यु दर (मॉर्टैलिटी रेट ) का औसत भी अधिक है। फिर भी इस महामारी से मरने वालों का औसत उतना नहीं है जितना कुछ वर्षों पुरानी आयी सारस नामक बीमारी से हुआ था। जहां कोरोना से 100 लोगों पर 3 लोग की ही मृत्यु हो रही है, वही सारस से 100 में 35 लोगों के मरने औसत था। अगर ऐसा है तो इतना हाय तौबा क्यों? इस बार इस महामारी ने अपने उरिजिन का केंद्र बदल लिया, ये अबकी बारी ग़रीब व विकासशील राष्ट्रों से न प्रारम्भ होकर अमीर और उन्नत विकसित राष्ट्रों से प्रारम्भ हुई है। जहां इस महामारी ने पश्चिम की उन्नत स्वास्थ्य सेवाओं की धज्जियां उड़ा दी वही दुनिया में इन राष्ट्रों की मेडिकल सेवा को लेकर एक सन्देह भी पैदा किया है। क्योंकि ये बीमारी उन्नत राष्ट्रों से फैली है इस कारण ये दुनिया के लिए बड़ा मुद्दा भी बन गई है।

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अब देखें कि इस वैश्विक संकट की घड़ी में भारत कैसे इस महामारी के बड़े प्रकोप से बच गया। इसके लिए वर्तमान सरकार की तत्परता और भारत बंदी का निर्णय इस महामारी को रोकने में प्रभावकारी रही साथ ही साथ यहां की संस्कृति और परम्पराओं की भी महती भूमिका रही है। सर्वे भावन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग भवेत्॥ अर्थात्‘सभी का कल्याण हो, सभी निरोगी रहें, सभी के जीवन में सद् इच्छा रहे, किसी के भी जीवन में दुख न रहे’ यही भाव ही तो भारत का मूल दर्शन है, जिस पर चलकर विश्व के सभी देश परस्पर उन्नति करते हुए साथ-साथ अस्तित्त्व बनाए रख सकते हैं ।

भारत की सनातन संस्कृति जिसमें हमने व्यक्ति, समाज, प्रकृति, जीव जंतु सभी को मिलकर इस दुनिया की संकल्पना की है, जिसमे कोई किसी से भिन्न नहीं है बल्कि एक ही है । भारत में व्यक्ति का प्रकृति के साथ संवाद परस्पर है ऐसा नहीं की केवल प्रकृति से लेना बल्कि उसकी सेवा करना, और अपने साथ उसके भी मंगल की कामना करना। इसलिए अथर्ववेद में कहा गया है कि- “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।” भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं। जब ये धरती मेरी माँ है तो इसकी चिंता कौन करेगा? मैं ही तो करूंगा। इसलिए पेड़ों को पानी देना, शाम को उनको नहीं छूना, अकारण वृक्ष नहीं काटना, वृक्षों से प्राप्त फूल, फल, औषधि सभी को पहले ईश्वर को देना उसके उपरांत ही स्वयं के लिए प्रयोग करना, ये अपना मानस है और अपनी संस्कृति भी। इस चराचर संसार में पेड़-पौधे ही नहीं सभी जीव जन्तुओ की भी चिंता करना अपना स्वभाव रहा है, इसलिए अथर्ववेद का ऋषि कहता है “तत्र सर्वो वै जीवति गौरश्वः पुरुषः पशुः। अत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनायकम्॥ (अथर्व. 8.2.25) अर्थात् ईश्वर ने पृथिवी पर सभी जीवों को समान रूप से जीने का अधिकार दिया है। इसलिए अकारण किसी व्यक्ति किसी जीव अथवा वनस्पति आदि के जीवन का हरण नहीं किया जा सकता है।

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इससे आगे बढ़ते हुए हमने किस प्रकार का आहार लेना इसके बारे भी हमारे धर्म ग्रंथो में विस्तार से दिया है, अथर्ववेद का “भूमि सूक्त” प्रकृति और मनुष्य के बीच अन्तः सम्बन्ध को स्थापित करते हुए उसके लिए मधु, दुग्ध, अन्न, जल आदि के भक्षण का विधान करता है। एक मन्त्र में कहा गया है कि-

यस्यास्चतस्रः प्रदिशः पृथिव्याः यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः।

या विभर्ति बहुधा प्राणदेजद् सा भूमिः गोष्वप्यन्ने दधातु॥ – अथर्व., 12.1

अर्थात् चार दिशाओं वाली पृथ्वी में विभिन्न प्रकार की कृषि होती है और यही पृथ्वी ही नाना प्रकार से अन्न, दुग्ध आदि के माध्यम से जीवन का रक्षण करती है। हमारे भारत में भोजन ऋतुओं के अनुसार किया जाता है जिस प्रकार कौन सी औषधि किस समय वृक्ष से लेनी है ये आयुर्वेद में है उसी प्रकार से सभी ऋतुओ का भोजन भी भिन्न प्रकार है। समाज और व्यक्ति के बीच के सम्बंध को भी बड़े विस्तार से हमारे वैदिक ग्रंथो में दिया है

मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।

मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।

मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।। – यजु, 26.2

अर्थात् सभी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें और मैं भी सभी को मित्र की दृष्टि से देखूं। वहीं ऋग्वेद में 10 वे अध्याय के 117 श्लोक में कहा गया कि “न स सखा यो न ददाति सख्ये ।” हम सभी एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें तथा समय आने पर एक-दूसरे की सहायता करें। हम सभी लोग मैत्री, करुणा, मुदिता आदि से सन्नद्ध होकर लोक-व्यवहार में प्रवृत्त हों तथा सभी लोग एक-दूसरे की रक्षा करते हुए अपने तेज, ओज की वृद्धि करें-

सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ – तैत्ति. उपनिषद्

अर्थात् सभी लोग साथ-साथ एकदूसरे की रक्षा करें, एक साथ खाना खाएं, एक-दूसरे की उन्नति में सर्वथा सहायक बनें और परस्पर किसी प्रकार का द्वेष न करें।

समानो मन्त्रः समिति समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।

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समानं मन्त्रमभिमन्त्रये समानेन वो हविषा जुहोमि॥ अथर्व., 6.64.2

सभी के आचार विचार उत्तम व उन्नतिकारक होने चाहिए, एक लक्ष्य को ध्यान में रखकर सभी लोग संगठन बनाकर एक साथ कार्य करें। ईश्वर कहते हैं कि जीवों की सेवा आदि कार्यों में सभी को एक साथ समान रूप से कार्य करना चाहिए। इसी लिए वर्ण व्यवस्था को भी कर्म आधारित ही माना गया ना की जन्म पर आधारित । समाज में शिक्षा राज्य के द्वारा हो और नैतिकता और समाज कर्तव्य बौध से परिपूर्ण हो इस प्रकार की शिक्षा पद्धति हो ऐसी संकल्पना भारत की शिक्षा व्यवस्था में कही गई है। वही राज्य कैसे चले राजा को पिता के रूप एक अभिभावक माना है उसका अपना जीवन समाज के जीवन को सुख समृधिपूर्ण बनाना है । राजा प्रजा की सुरक्षा हेतु सभी प्रकार के शत्रुओं का विनाश करे-

वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमंशमुदवा भरेभरे ।

अस्मभ्यमिन्द्र वरीयः सुगं कृधि प्र शत्रूणां मघवन् वृष्ण्या रुज ॥

  • अथर्ववेद, 7/50/4.

राजा इस प्रकार के वातावरण का निर्माण करे, जिसमें प्रजा को किसी प्रकार का अवाञ्छित भय न हो, वह सर्वथा निर्भीक होकर समाज में अपने व्यक्तित्त्व का विकास कर सके। सभी को एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति हो, किसी के मन में किसी के प्रति कोई द्वेष न हो। भारतीय परम्परा को समझाते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत कहते है “स्वदेशी,समर्पण,सेवा भारत की पहचान है”। वहीं गांधी जी ने भी कहा है कि स्वदेशी तत्व के आत्मसात करने से ही भारत को सशक्त राष्ट्र बनाया जा सकता है।

इस प्रकार भारतीय संस्कृति मानव तथा मानवता के संरक्षण में अपनी महती उपादेयता सुनुश्चित कर सकती है। क्योंकि इसका जनमानस हमेशा दूसरों की मदद की बात करता है। इसके समाज में केवल व्यक्ति ही नहीं अपितु प्रकृति की सभी अवस्थाएं समाहित हैं।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सहायक प्राध्यापक हैं एवं ये उनके निजी विचार हैं।)

 

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