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नागा शांति-वार्ता की अड़चन

प्रो. रसाल सिंह

एन.एस.सी.एन.(आईएम) नामक हिंसावादी संगठन ने “नागालिम या ग्रेटर नागालैंड नामक स्वतंत्र राष्ट्र के स्वप्न को बेचते हुए” नागा समुदाय को अनवरत हिंसा और उपद्रव की आग में झोंका है। सन्1988 से लेकर आजतक इन चरमपंथियों ने उन सभी लोगों (अपने ही नागा भाइयों सहित) को अपनी बंदूक का निशाना बनाया है, जो कि शांतिपूर्ण ढंग से नागा समस्या का समाधान करना चाहते हैं। इस संगठन ने दमन, उत्पीड़न, हिंसा और दहशत के बलबूते नागालैंड में समांतर सरकार कायम कर ली। इसी हिंसा और सैन्य-शक्ति के बल पर यह संगठन अन्य नागा संगठनों और आवाज़ों को कुचलते हुए नागा हितों का स्वघोषित और सबसे बड़ा झंडाबरदार बन बैठा है। एक बार राष्ट्रीय पहचान, स्वीकृति और महत्व मिल जाने के बाद इस संगठन के स्वयंभू महासचिव थुंगालेंग मुइवा ने इस संगठन को अपना ‘जेबी संगठन’ बनाते हुए इसपर अपने समुदाय तन्ग्खुल का वर्चस्व स्थापित कर लिया। केंद्र की अलग-अलग सरकारों ने भी इस संगठन की हिंसक उपस्थिति का संज्ञान लेते हुए लगातार केवल इसी संगठन के साथ शांति-वार्ताएं कीं, और जाने-अनजाने इस संगठन का महत्व और हैसियत बढ़ायी।

3 अगस्त, 2015 को हुआ समझौता भी भारत सरकार और थुंगालेंग मुइवा संचालित एन.एस.सी.एन. (आईएम) के बीच ही हुआ था। इस ऐतिहासिक अवसर पर अपने वक्तव्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  ने कहा था- “नागाओं का साहस और प्रतिबद्धता प्रसिद्ध है, ऐसे में उनकी विशिष्ट संस्कृति और इतिहास को मान्यता देना, भारत की सांस्कृतिक समरसता और एकता को ही दर्शायेगा और 70 दशक लम्बी इस लड़ाई का अंत होगा।” मोदी सरकार के साथ हुए इस समझौते ने पिछले दो दशक से अधिक समय में भारत सरकार और इस अलगाववादी संगठन के बीच बार-बार होने-टूटने वाले संघर्षविराम को निर्णायक शांति-स्थापना तक पहुँचने की आस जगायी ।

हालाँकि, 23 वर्ष पूर्व, 1 अगस्त 1997 में हुआ युद्ध विराम समझौता अपने आप में त्रुटिपूर्ण था क्योंकि  इस समझौते में एन.एस.सी.एन.(आईएम) के अन्य लोगों और संगठनों के साथ हिंसा करने पर प्रतिबन्ध का प्रावधान नहीं था। युद्ध-विराम का फायदा उठाकर 23 वर्षों में इस  संगठन ने न सिर्फ खुद को पुनः संगठित और मजबूत किया ; बल्कि अपनी लेवी (वसूली) आदि गैर-क़ानूनी गतिविधियों का भी निर्विघ्न संचालन करता रहा। NSCN ।M के मुखिया मुइवा ने  युद्धविराम की समयावधि का उपयोग अन्य सशस्त्र नागा संगठनों (एन.एस.सी.एन. आईएम के अलावा साथ सशस्त्र नागा  संगठन नागालैंड में सक्रिय हैं) और शांतिपूर्ण ढंग से समाधान चाहने वाले नागा समूहों और नागरिक समाज को ठिकाने लगाने के लिए भी किया। उल्लेखनीय है कि युद्ध-विराम की अवधि में उसने ऐसे लगभग एक हजार लोगों की नृशंस हत्या कर दी है। इस अवधि में उसने अपने एकाधिकार और वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने का पुरजोर प्रयास किया।  शांति वार्ताएं चलती रहीं, परन्तु कोई समाधान नहीं निकला।  इसप्रकार युद्ध-विराम के आगे बढ़ते रहने में तो उसकी पूरी रुचि है किन्तु शांति-वार्ता को आगे समाधान तक ले जाने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए  वह अलग-अलग बहानों और हथकंडों से शांति-वार्ता में अड़ंगा लगाकर युद्ध-विराम की अवधि को आगे बढ़ाते रहना चाहता है और उसका एकतरफा फायदा उठाना चाहता है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) में विशेष प्रावधान द्वारा नागालैंड राज्य  के  साथ अलग पहचान, सम्मान सांस्कृतिक संरक्षण प्राप्त करने हेतु शांतिपूर्ण किन्तु श्रमसाध्य और खतरनाक यात्रा करने वाले नागा पीपुल्स कन्वेंशन जैसे शांतिपूर्ण  प्रयास करनेवाले देशभक्त नागा नेताओं के बलिदान और साहस को आधुनिक नागालैंड के इतिहास में सम्मान और स्वीकार्यता प्रदान किया जाना आवश्यक है।

नागालैंड के वर्तमान राज्यपाल श्री आर एन रवि ने इस दिशा में पहल करते हुए उन शांतिवादी बलिदानियों को सम्मान देते हुए शैक्षणिक संस्थानों, सार्वजनिक पार्कों, अन्य सरकारी संस्थाओं और योजनाओं का नामकरण उनके नाम पर करना शुरू किया है।  इसी कड़ी में भारत के 71 वें गणतंत्र दिवस पर  श्री आर.एन. रवि ने डॉ. इम्कोन्ग्लिबा आओ जैसे शांतिप्रिय और राष्ट्रवादी नेता के नागालैंड राज्य के निर्माण और विकास में योगदान को रेखांकित करते हुए कोहिमा स्थित राजभवन के दरबार हॉल को उन्हें समर्पित किया। उल्लेखनीय है कि  एन.एस.सी.एन.(आईएम) नागालैंड राज्य को मान्यता नहीं देता। राज्यपाल महोदय ने इस संगठन के अलावा नागाओं के अन्य प्रतिनिधि संगठनों को भी वार्ता के दायरे में शामिल करने की शुरुआत की है। उन्होंने भूमिगत संगठनों ख़ासकर एन.एस.सी.एन. (आईएम) द्वारा की जाने वाली वसूली और अन्य गैरकानूनी और आपराधिक गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए स्थानीय सरकार पर दबाव बनाया है। राज्यपाल महोदय सीधे और सक्रिय हस्तक्षेप के बाद न सिर्फ स्थानीय सरकार ने उपरोक्त आपराधिक गतिविधियों और वसूली को रोकने की पहल की है, बल्कि असम राइफल्स और भारतीय सेना ने उनकी नकेल कसते हुए प्रत्येक जिला मुख्यालय स्थित उसकी ‘टाउन कमांड’ व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया  है। दीमापुर मणिपुर और नागालैंड का प्रवेश-द्वार है और इस संगठन की कमाई का सबसे बड़ा केंद्र रहा है। अभी तक दीमापुर नगरपालिका का कर-संग्रह भी निजी हाथों में था, जिसे यह संगठन संचालित करता था। अब दीमापुर नगरपालिका का कर-संग्रह स्वयं पालिकाकर्मी करते हैं। बड़े सरकारी निर्माण-कार्य  करने वाले ठेकेदारों, उद्योग-धंधे चलाने वालों से जबरन वसूली करने और निर्दोष नागरिकों की हत्या करने पर मुकदमे दर्ज शुरू हुए हैं। एकतरह से नागालैंड में कानून के राज की बहाली हुई है और एन.एस.सी.एन.(आईएम) की समान्तर सत्ता द्वारा की जाने वाली हिंसा, दहशतगर्दी और अवैध वसूली पर  रोक लगी है। स्वाभाविक ही है कि एन.एस.सी.एन. (आईएम) और उसके मुखिया मुइवा को राज्यपाल महोदय का यह “हस्तक्षेप” सख्त नागवार लगा है। इन कार्रवाइयों से उसकी छटपटाहट बढ़ गयी है। इसीलिए उसने शांति-वार्ताकार श्री आर.एन. रवि को बदलने की माँग की है, क्योंकि उनके द्वारा उठाये जा रहे कदमों से एन.एस.सी.एन. (आईएम) का एकाधिकार और वर्चस्व खतरे में पड़ता दिखायी पड़ रहा है। इसलिए इस संगठन द्वारा पुनः जंगलों में लौटने की गीदड़-भभकी के साथ-साथ अन्य छिट-पुट संगठनों से प्रायोजित आन्दोलन, प्रदर्शन और बयानबाजी भी करायी जा रही है।

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नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ़ नागालिम (आईएम) के महासचिव थुंगालेंग मुइवा की हठधर्मिता और अड़ियल रवैये के चलते एकबार फिर नागा समुदाय के साथ जारी शांति-वार्ता में गतिरोध पैदा होने की आशंका पैदा हो गयी है। यह चिंता की बात है कि व्यक्ति-विशेष (थुंगालेंग मुइवा) ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए एकबार फिर शांतिवार्ता में पलीता लगाने का षड्यंत्र शुरू कर दिया है। ठीक ऐसा ही इस व्यक्ति ने सन् 1966-67 में नागा समस्या के समाधान के समय भी किया था।  भारत के भगोड़े फीज़ो ने ब्रिटेन में शरण लेकर सन् 1965 में मणिपुर के तन्खुल समुदाय के मुइवा को नागा नेशनल कौंसिल (NNC) का महासचिव बना दिया था। मुइवा ने अपनी स्थिति को बहुत जल्दी और बहुत मजबूत कर लिया था। सन् 1966-67 में होने वाले शांति-समझौते के समय सेमा और अंगामी जैसे दो बड़े समुदायों में आपसी फूट और अविश्वास पैदा करके उसने शांति-वार्ता को विफल करा दिया था। सन् 1979 तक भूमिगत नागा सेना को क्रमशः अपने प्रभाव में लेकर और NNC में तख्तापलट करते हुए उसने सत्ता हथिया ली।  सन 1980 में इस महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ़ नागालिम का गठन करके अपने ‘गॉडफादर’ रहे फीज़ो को भी किनारे कर दिया था।

दरअसल, एन.एस.सी.एन. (आईएम) और उसके सर्वसत्ताधिकारी महासचिव थुंगालेंग मुइवा की महत्वाकांक्षा और सत्ता-लालसा के चलते यह गतिरोध पैदा हो रहा है। सर्वविदित है कि नागालैंड में कार्यरत इस हिंसावादी सशस्त्र संगठन की अपनी भूमिगत सेना और समानांतर सरकार है। इस संगठन को भारत-विरोधी देशों से भरपूर शह, सहयोग और समर्थन मिलता रहता है। शांति-वार्ता के सफल हो जाने की स्थिति में इस संगठन और इसके स्वयम्भू नेता को अप्रासंगिक हो जाने का डर है; क्योंकि यह संगठन वास्तव में बहुसंख्यक नागा समुदाय का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता। अपनी सशस्त्र सेना और अन्यान्य हथकंडों के कारण यह संगठन यह सन्देश देने में जरूर सफल रहा है कि वही सम्पूर्ण नागा समुदाय  का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन है, और वही नागाओं के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक है। किन्तु ध्यानपूर्वक देखने से पता चलेगा कि यह संगठन नागाओं में अत्यन्त अल्पसंख्यक मणिपुर के तन्ग्खुल समुदाय का ही प्रतिनिधित्व करता है। न सिर्फ इस संगठन के सर्वेसर्वा मुइवा स्वयं इसी समुदाय से आते हैं, बल्कि समस्त नागाओं का प्रतिनिधि संगठन होने का दम भरने वाले इस संगठन के अधिकांश महत्वपूर्ण पदों पर तन्ग्खुल समुदाय के लोग ही काबिज हैं। शांति-वार्ता के सफल होने और पूरे नागालैंड में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया बहाल हो जाने की स्थिति में इन्हें अपने “अप्रासंगिक” हो जाने का खतरा शांति-वार्ता में गतिरोध पैदा करने को विवश करता प्रतीत हो रहा है। नागा हितों की आड़ में स्वयं अपने और तन्ग्खुल समुदाय के वर्चस्व को बनाये /बचाए रखना इनकी मूल चिंता है।

नागालैंड में 14 नागा समुदाय निवास करते हैं। नागालैंड में रहने वाले ये 14 नागा समुदाय नागाओं की कुल जनसंख्या का 80 प्रतिशत हैं। इन अलग-अलग समुदायों के अपने बहुत से सक्रिय और सशक्त संगठन हैं। वे समुदाय विशेष के विशिष्ट इतिहास, सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और आशा-आकाँक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। नागालैंड गाँव बूढ़ा फेडरेशन (जोकि नागालैंड के 14 नागा समुदायों के 1585 गाँव प्रमुखों की सर्वोच्च संस्था है) ने निडरतापूर्वक आगे आकर केंद्र सरकार से अपील की है कि नागा समस्या के समाधान में ‘अपने मुँह मियां मिट्ठू बनने वाले’ चरमपंथी संगठन एन.एस.सी.एन. (आईएम) को आवश्यकता से अधिक महत्व न दिया जाये और नागा समुदाय के अन्य प्रतिनिधि संगठनों की भी सुनवाई की जाये। नागा समुदायों के बीच मणिपुर के तन्ग्खुल समुदाय के वर्चस्व वाले संगठन एन.एस.सी.एन. (आईएम) की विश्वसनीयता में क्रमशः गिरावट आयी है। ‘पैन नागा होहो’ पर इसी समुदाय के वर्चस्व की प्रतिक्रियास्वरूप अन्य सभी नागा समुदायों ने उसकी सदस्यता छोड़ दी है। इसीप्रकार ‘नागा स्टूडेंट फेडरेशन’ से अन्य नागा समुदायों के छात्र संगठनों ने और ‘नागा मदर्स एसोसिएशन’ से अन्य नागा समुदायों के महिला संगठनों ने अपनी सदस्यता वापस ले ली है। ये सब घटनाक्रम इस हिंसावादी संगठन की विश्वसनीयता में गिरावट, दहशत के खात्मे और इसके क्रमशः हाशिये पर जाने के उदाहरण हैं।

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मुइवा के समुदाय तन्ग्खुल के प्रति अविश्वास और प्रतिद्वंद्विता का इतिहास बहुत पुराना है। आपसी भरोसे और एकता में कमी का मूल कारण मुइवा की पृष्ठभूमि, उसकी कार्यशैली और एन.एन.सी. और एन.एस.सी.एन. के शीर्ष पर पहुँचने के लिए उसके द्वारा बहाया गया अपने ही नागा भाइयों का खून है। एक और वजह इस संगठन में अन्य नागा समुदायों की उपेक्षा और दोयम स्थिति है। इस संगठन के प्रति उपजी घृणा की जड़ में इसकी धौंस-पट्टी और हिंसा के बल पर दूसरे समूहों और समुदायों की आवाज़ को दबाने की प्रवृत्ति भी है। एन.एस.सी.एन. पर काबिज तन्ग्खुल नेतृत्व के प्रति घृणा, अविश्वास और अस्वीकार्यता का आलम यह है कि उसके कैडर और कॉलोनियों पर अनेक बार सेमा, लोथा, अंगामी, आओ आदि समुदायों द्वारा घातक हमले किये गए हैं। ये हमले विश्वसनीयता की कमी और घृणा का ही प्रतिफलन हैं। अन्य नागा समुदायों और संगठनों में इस संगठन के प्रति आक्रोश और असंतोष का भाव इसलिए भी है, क्योंकि इसने अपनी हिंसक कार्रवाइयों की वजह से देश और दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके स्वयं को समस्त नागाओं का प्रतिनिधि और संरक्षक संगठन प्रचारित कर रखा है, जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं है। अन्य नागा संगठनों (जिनमें से कई सशस्त्र संगठन भी हैं) को केंद्र की अलग-अलग सरकारों ने लगातार उपेक्षित किया है, क्योंकि उनकी हिंसात्मक और विनाशक शक्ति एन.एस.सी.एन.(आईएम) जितनी नहीं है। हालाँकि, वे बड़े नागा समुदायों और बहुसंख्यक नागाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। केंद्र सरकार को इस सत्य को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि शांति-वार्ता के फलागम को चिरस्थायी और व्यापक बनाने के लिए सभी ‘स्टेकहोल्डर्स’ की भागीदारी आवश्यक है। कहावत है कि जो फेरीवाला जितनी जोर से आवाज़ लगाता है, उसका सामान उतना ही ज्यादा बिकता है। मुइवा और उसके संगठन ने इस कहावत का सर्वाधिक दोहन किया है।

इसमें दो राय नहीं कि एन.एस.सी.एन.(आईएम) सर्वाधिक कुख्यात,हिंसक और उग्र संगठन है। किन्तु वही नागाओं का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन नहीं है। वह व्यापक नागा जनाकांक्षाओं की आवाज़ भी नहीं है।  यूँ भी इस संगठन का मुखिया मुइवा एक भरोसेमंद और नागा हितों के लिए समर्पित व्यक्ति नहीं है। उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। उसकी पहली प्राथमिकता स्वहित है। पिछले तीन दशक में उसने अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग बहानों से शांति-प्रयासों को पलीता लगाया है, ताकि अपना महत्व बनाये रखकर अपनी स्वार्थ-सिद्धि करता रह सके। इसबार की उसकी चाल नयी नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि नागा लोगों को बरगलाने,भड़काने,डराने और दुष्प्रचार करने की कला में भी यह संगठन और इसका मुखिया सिद्धहस्त हैं। यदि भारत सरकार और शांति-वार्ताकार और नागालैंड के राज्यपाल श्री आर.एन. रवि ने सूझबूझ से काम लिया तो इसबार उसे सफलता हाथ नहीं लगेगी क्योंकि नागाओं की बहुत बड़ी आबादी उसके वास्तविक मंसूबों और हथकंडों को समझने लगी है। साथ ही, दो-तीन दशक से इस संगठन द्वारा की गयी हिंसा, डर और दहशत से बाहर निकलकर अपनी आकांक्षाओं और सपनों को स्वयं अभिव्यक्त करना चाहती है। अब नागालैंड की आम जनता, ख़ासकर युवा पीढ़ी अनवरत संघर्ष और हिंसा से मुक्ति चाहती है और विकास और बदलाव चाहती है। वह उसी संगठन का साथ देगी जो समाधान की दिशा में कदम बढ़ाएगा और उनके सपनों को साकार करने की जमीन तैयार करेगा। भारत सरकार और शांति-वार्ताकार श्री आर.एन. रवि को उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए शांति-प्रयास जारी रखने की आवश्यकता है

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नागालैंड में कौन अशांति चाहता है ?

नागालैण्ड राज्य दक्षिण में मणिपुर, उत्तर और पश्चिम में असम और पूर्वोत्तर में अरुणाचल प्रदेश की सीमाओं से घिरा हुआ बहुत ही रमणीय पर्वतीय तथा मैदानी क्षेत्र है। सदियों से इस क्षेत्र में अंगामी, सेमा, तन्ग्खुल, आओ, चाखेसांग, चांग, खिआमनीउंगन, कुकी, कोन्‍याक, लोथा, फौम, पोचुरी, रेंग्‍मा, संगताम, सुमी, यिमसचुंगरू और ज़ेलिआंग आदि अनेक जन-समुदाय अपनी-अपनी भाषा, वेशभूषा, भोजन, पर्व, परंपरा आदि अनेक सांस्कृतिक एवं भौगोलिक विविधताओं और विशेषताओं के बावजूद सौहार्दपूर्वक रहते आए हैं। इन समुदायों के तराई में रहने वाले अहोम राजवंश के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध थे। रोटी-बेटी का व्यवहार था। अहोम राजाओं की सेना में नागा वीर सम्मिलित थे।  उन्नत और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाले इन समुदायों को अंग्रेजों द्वारा सुनियोजित ढंग से असभ्य, जंगली, क्रूर एवं अत्यंत हिंसक जनजाति की पहचान दी गयी। नागाओं के अद्भुत पराक्रम से भयभीत होकर जनमानस में उनके प्रति घृणा और भय का भाव पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें ‘सरकटिया’ (Head-Hunters) जनजाति तक कह डाला।

भारत से अलगाव की भावना अंग्रेजों की विभाजन और धर्म-परिवर्तन (ईसाईकरण) की नीति का प्रतिफलन है। अंग्रेजों द्वारा पोषित औपनिवेशिक नीति ही आज तक इस सुन्दर और सुरम्य क्षेत्र में असंतोष, अशांति और उग्रवाद का बीज  कारण है। असफल रही ‘क्राउन कॉलोनी योजना’ अंग्रेजों की कुटिल अंतरराष्ट्रीय राजनीति का परिचायक है। अंग्रेजों ने नागा जन-समुदाय में भारत के प्रति अलगाववाद, असंतोष और उग्रता का गहन बीजारोपण किया।  1950 में NNC का अध्यक्ष बनने के बाद आतंकवादी नेता तथा ब्रिटिश नागरिक ए जेड फिज़ो ने स्वतंत्र ‘बृहत्तर नागालैंड’ अथवा “नागालिम” की घोषणा कर दी थी। बाद में इस संगठन ने अलगाववाद  और हिंसा का चरमपंथी रास्ता अपनाया। परिणामस्वरूप हिंसा-प्रतिहिंसा की असंख्य घटनाओं में निर्दोष नागा समुदाय, NNC और भारतीय सेना के हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। अमेरिका, चीन और पाकिस्तान आदि देशों ने भारत में अशांति और अस्थिरता उत्पन्न करने के उद्देश्य से इन हिंसक नागा विद्रोहियों को आर्थिक और शस्त्रास्त्र आदि का भरपूर सहयोग दिया।

डॉ. इम्कोन्ग्लिबा आओ, टी सिक्री जैसे शांतिप्रिय तथा नागा लोगोंके सच्चे हितैषी नेता फिजो से सहमत नहीं थे। वह  1952 में NNC – R की स्थापना कर  शांततापूर्ण समाधान के लिए प्रयासरत रहे। उन्हीं के प्रयासों के कारण 1956 से 1958 तक 3 नागा पीपुल्स कन्वेंशन आयोजित किये गए। भारत सरकर के साथ मिलकर इस समस्या का किसप्रकार समाधान किया जा सकता है, इसपर चर्चा हुई। अंततः सन् 1960 में 16 पॉइंट एग्रीमेंट के ऊपर हस्ताक्षर हुए। 1962 में संसद में नागालैंड राज्य अधिनियम पास हुआ और 1 दिसंबर,1963 को नागालैंड विशेष अधिकारों के साथ भारत का 16वां राज्य बन गया। नागालैंड की स्थापना में डॉ. इम्कोन्ग्लिबा आओ जैसे अनेक शांतिप्रिय नेताओं की उल्लेखनीय भूमिका रही थी। टी सिकरी तथा डॉ. इम्कोन्ग्लिबा आओ को फिजो ने मरवा डाला। आंतकवादियों  पर दबाव बढ़ने की स्थिति में फ़ीजो, ब्रिटेन मूल के रेव्हरेंट माइकल स्कॉट और ब्रिटेन सरकार की  मदद से भारत से पलायन कर पूर्वी पकिस्तान भाग गया और वहां से जून 1956 में लन्दन चला गया। उसके बाद वह कभी भारत नहीं लौटा। 1990 में लन्दन में ही उसकी मृत्यु हुई।

फ़ीजो के  ब्रिटेन भाग जाने के बाद, वहीं से उसने 1965 में मुइबा को सचिव बना दिया। मुइवा ने भारत सर्रकार के साथ 1966 में होने वाले समझौते को विफल कर दिया और पून: नागा समाज को अपनी महत्वाकांक्षा के लिए आतंकवाद की आग में झोंक दिया।  नवम्बर 1975 को कुछ नागा नेताओं ने  (जिसमें फिजो का भाई भी था)  “शिलॉंग समझौते” के तहत भारत सरकार द्वारा प्रदत्त आम क्षमादान की पेशकश स्वीकार कर ली। परन्तु कुछ ऐसे चरमपंथी भी थे, जिन्होंने समर्पण करने से इनकार कर दिया। इनमें खापलांग, आइजैक और मुइबा सर्वप्रमुख थे। इन लोगों ने सन् 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालिम (NSCN) का गठन कर लिया। इस संगठन ने “शिलॉंग समझौते” को ‘नागा आन्दोलन के साथ छल’ और ‘नागा-संघर्ष की नीलामी’ करार देके नागा समाज का बुद्धिभेद करने का प्रयास किया । आपसी विरोध के कारण सन् 1988 में एन.एस.सी.एन. में विभाजन हो गया और विभाजित संगठन एन.एस.सी.एन.(आईएम) में आइजैक चिशी स्वू अध्यक्ष और थुंगालेंग मुइवा महासचिव बन बैठे। तब से लेकर आजतक एन.एस.सी.एन.(आईएम) और उसका स्वयंभू कमांडर-इन-चीफ थुंगालेंग मुइवा अलगाववादी हिंसा,अराजकता और असंतोष की जड़ है।

(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर और अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं)

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