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गुरु नानक देव : सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक एकता के दिव्य सूत्रधार

भारत अन्य अनेक देशों की तरह विशेष प्रकार की ऐतिहासिक और राजनीतिक परिस्थितियों से नहीं जन्मा, और न ही यह किसी राजपरिवार या समुदाय की राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रतिफल है। यह एक नैसर्गिक सांस्कृतिक-भौगोलिक इकाई है, अतः यह प्राकृतिक राष्ट्र है। भारत में समय समय पर ऐसी विभूतियों ने जन्म लिया है जिनके वचनों तथा जीवन कर्मों के माध्यम से हमारे समाज को और वृहत्तर मानवता को अपने युग के श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों का ज्ञान हुआ है। ऐसी विभूतियों में प्रथम सिख गुरु बाबा नानक का नाम बहुत ऊँचा है, जिन्होंने 550 वर्ष पूर्व अवतार लिया, पर जिनकी शिक्षाएं आज के समय में भी समाज के लिए प्रासंगिक हैं, और वरण किये जाने के योग्य हैं। नानक जी का दर्शन भारत के मूल चिति के अनुरूप विकसित हुआ है।

बाबा नानक उस समय हुए जब भारत विदेशी बर्बर आक्रान्ताओं के शासन में जकड़ा हुआ था, हमारे समाज के लिए वह अत्यंत दुष्करकाल था, जिसमे अपना अस्तित्व बचाना ही बहुत बड़ी चुनौती थी। उस दौर में बाबा ने हमारे समाज के रोग को समझा और उसकी उचित औषधि तैयार की। उन्होंने पाया कि लोग यह भूल गये हैं कि जातियों, वर्णों और क्षेत्रों के भेद मिथ्या हैं और वस्तुतः सब मनुष्य एक हैं। दूसरा, उन्होंने यह देखा कि समाज में बलिदान करने के भाव, जो किन्ही कारणों से मंद पड़ रहा था, उसे फिर से जागृत करने की आवश्यकता है। इन दो प्रमुख दोषों को दूर करने के लिए पहले तो उन्होंने एक ओमकार की अवधारणा दी, जिसने इस आध्यात्मिक सत्य को स्थापित किया कि प्रत्येक प्राणी मात्र में एक ही ईश्वर का अंश हैं। इसके साथ ही उन्होंने इसी विचार को व्यवहार में उतारने के लिए लंगर और पंगत की परम्पराएं शुरू की, जो इस दर्शन पर आधारित है कि समाज के हर व्यक्ति को एक जैसी व्यवस्था और व्यवहार मिलने पर उनमें एकात्मता के भाव की अनुभूति होती है।यह दर्शन ‘हिन्दू सर्वा सहोदराः, हिन्दू नः पतितो भवेत्’ का ही रूप है।

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लंगर और पंगत का लक्ष्य समाज को समरसता के माध्यम से सशक्त बनाना है और लोगों में बन्धुत्व के भाव को प्रगाढ़ करना है। अतः इसकी आवश्यकता उस काल के कठिन समय में तो थी ही, परन्तु आज भी इस प्रकार के विचार और व्यवहार को बढ़ावा देने की जरुरत है। भारत में उस दौर में मुग़ल शासकों द्वारा मजहबी कारकों से प्रेरित अकल्पनीय अत्याचार हो रहा था। बाबा नानक ने यह देखकर मर्माहत होते हुए कहा – “जैसा अत्याचार भारत पर हो रहा है हे भगवन तुम्हे क्या लाज नहीं आती”। नानक जी के दर्शन में बलिदान और समाजोन्मुखी कार्यों को मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य बताया गया। एक सामान्य मनुष्य अपना सरल जीवन जीते हुए समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व कैसे निभा सकता है, इसके लिए गुरु नानक जी ने तीन काम करने को कहा- कीरत करो (श्रम और नियम से अपनी आजीविका प्राप्त करो), वंड चखो( अपनी कमाई को दूसरों की आवश्यकताओं के लिए भी लगाओ) और नाम जपो (ईश्वर के नाम का स्मरण करते रहो)। नानक जी की रचनाओं में, जिन्हें हम उदासियाँ कहते हैं, मनुष्य के सांसारिक और अध्यात्मिक दुविधाओं का सरलतम शब्दों में उपाय दिया गया है। गुरु नानक जी ने ‘आपे गुरु, आपे चेला’ की बात की। जिन शिष्यों को उन्होंने दीक्षित किया, बाद में उन्होंने उन्हीं शिष्यों से स्वयं दीक्षा ली। उनके इस एक कार्य में सिख परंपरा में पौराहित्यिक एकाधिकार की संभावनाओं को समाप्त कर दिया, तथा व्यक्ति और ईश्वर को सीधा जुड़ने का रास्ता दे दिया।

गुरु परंपरा पर आधारित सिख पद्धति में बलिदान का भाव इतना गहरा जमा हुआ है कि सम्पूर्ण सिख इतिहास स्वर्णिम शौर्य और बलिदानों का इतिहास है। बाबा नानक की परंपरा में 9वें गुरु तेगबहादुर सिंह जी ने उन्मादी औरंगजेब के अत्याचारों को चुनौती देते हुए स्वयं का बलिदान दिया। जिस स्थान पर गुरु का शीश गिरा उसी स्थान पर आज चांदनी चौक के सामने गुरुद्वारा सीसगंज है और जहाँ उनके शरीर का अंतिम संस्कार किया गया वहां गुरुद्वारा रकाबगंज है जो भारतीय संसद के पास स्थित है। अपने इस ऐतिहासिक बलिदान के कारण गुरु तेग बहादुर सिंह जी को ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है, और पूरा हिन्दू समाज स्वयं को उनका ऋणी मानता है।

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गुरु नानक की ही परंपरा में गुरु गोबिंद सिंह जी जो सिख परंपरा में 10वें और अंतिम गुरु बने। सभी वेदों का सार ग्रहण कर उन उन्होंने अपने कवित्त से उसे अभिव्यक्त किया। पूरा जीवन उन्होंने मुग़ल अत्याचारों के विरुद्ध युद्ध किया और देश भर के लोगों को संगठित करने का कार्य किया। अपने चारों पुत्रों को उन्होंने अपनी आँखों के सामने बलिदान होते देखा। उन्होंने खालसा सर्जना करते हुए समाज के हर वर्ग के लोगों को दीक्षित किया। उनके द्वारा शुरू की गयी परंपरा के फल स्वरुप आज भी देश के कुछ भागों में जाति-पाती के विचार के बिना परिवार का एक बेटा केशधारी शिष्य बनता है। इससे यह सन्देश जाता है कि जो रक्त हमारे केशधारी बंधुओं की नसों में दौड़ रहा है वही रक्त हमारे भीतर भी दौड़ रहा है।

इस देश के प्रत्येक व्यक्ति ने एक गुरु नानक की शिक्षाओं का प्रसाद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवश्य चखा है। गुरु नानक देव जी ने भारत की मूल चिति को समझा और उसे आत्मसात करके अपने वचनों में उतारा। सिख संप्रदाय उसी चिति के साथ आगे बढ़ा। इसीलिए इसने भारत के मूल संस्कारों का हमारे समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप अनुकूलन किया और आज यह एक धनी विरासत का वारिस है। 1897 में सारागढ़ी का युद्ध में मात्र 21 सिख सैनिकों ने जिस प्रकार आक्रान्ता सेना का सामना किया वह आजकल ‘केसरी’ नाम की फिल्म आने के बाद चर्चा का विषय बना हुआ है परन्तु, सिख वीरों ने ऐसे बहुत से युद्धों और मोर्चों का सामना किया है। सिख परंपरा वस्तुतः वीरता, राष्ट्रनिष्ठा और मानवतावाद की परंपरा है जिसकी नींव में बाबा नानक के वचन और उनका जीवन है।

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9 नवम्बर 2019 को रामलला की जन्मभूमि पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय में भी गुरु नानक देव जी की 1510 में अयोध्या यात्रा का जिक्र मंदिर के अस्तित्व के एक प्रमाण के रूप लिया गया है। गुरु नानक देव जी ने भारत के बाहर की यात्राएं करके अन्य सभ्यताओं के अनुभव भी प्राप्त किये और अपनी शिक्षाओं में उन्होंने स्थान दिया। बाबा नानक को समर्पित गुरुस्थान आज भी इराक की राजधानी बगदाद में स्थित है। अफगानिस्तान में बाबा नानक के अनुयायियों को, जो हज़ारा समुदाय से हैं, ‘मुरीद नानकी’ के नाम से अभी भी जाना जाता है। उनकी शिक्षाओं का प्रसार भारत की सीमाओं के पार भी है।

गुरु नानक जी के 551वें प्रकाश पर्व इस बार का गुरु पर्व विशेष इसलिए भी है क्योंकि नानक जी की निर्वाण स्थली करतारपुर साहेब (जो पाकिस्तान में पड़ती है) के दर्शन करने से वंचित रहते थे, हम इस बार भारत और पाकिस्तान सरकारों के संयुक्त प्रयास के चलते इस बार वहां के दर्शन भी कर पा रहे हैं। इस अवसर पर यह पहल  करनी चाहिए कि गुरु नानक जी कि शिक्षाओं और उनके द्वारा डाली गयी परम्पराओं को स्कूली स्तर से ही हमारे भविष्य की पीढ़ियों को पढ़ाया जाये, तथा उनके द्वारा शुरू की गयी परम्पराओं को नए सिरे से बढ़ावा दिया जाये ताकि हमारे समाज में भी उच्चतर मानवीय मूल्यों का विकास हो सके। गुरु नानक देव के जीवन सन्देश से हम ऐसे विचार ग्रहण करते हैं जो हमें वर्तमान युग की चुनौतियों जैसे पर्यावरणीय विघटन, सामाजिक एकता को तोड़ने के प्रयास, संसाधनों का दुरूपयोग आदि का सफलता पूर्वक सामना करने में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होंगे। हमें हम विचारों को आत्मसात करना चाहिए और उनको अपने सामाजिक जीवन पद्धति का हिस्सा बनाना चाहिए।

( लेखक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री है)

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