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शाहीन बाग की बंधक सडक और विरोध का एक्सपेरिमेंट

राजीव रंजन प्रसाद

दिल्ली का एक हिस्सा लगभग कराह रहा है। नहीं मैं, शाहीन बाग में जमें कथित आन्दोलनकारियों की बात नहीं कर रहा हूँ। नागरिकता संशोधन कानून का यदि विरोध हो रहा है, तो देश का बड़ा हिस्सा इस कानून के समर्थन में भी है। समर्थन में उमडने वाली विशाल रैलियाँ विरोध के तेवर ढीले करती प्रतीत होती हैं। दोनो की पक्ष अपने अपने तरह से आंदोलनरत हैं। केवल शाहीन बाग ही सही क्यों? इसका प्रतिपक्ष भी संविधान के तहत मुखर है और उसे भी अपनी बात रखने का अधिकार है। लोकतंत्र न किसी विचार विशेष की ठेकेदारी है न किसी धर्म विशेष की। लोकतंत्र कोई मुंगेरीलाल….माफ कीजियेगा रामचंद्र गुहा के हसीन सपने नहीं हैं कि वे तय कर सकें, राहुल गाँधी को केरल की जनता ने चुनाव जिता कर सही किया या गलत…ऐसी विवेचना ही लोकतंत्र का अपमान है। जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रकाशराज जैसे औसत दर्जे के खलनायक अभिनेता परीक्षा पर कार्यक्रम की खिल्ली प्रधानमंत्री की डिगरी मांग कर उडाते हैं तो हँसी इस बात पर आती है कि जिन्हें अपनी अगली फिल्म का भरोसा नहीं लोग देखेंगे या नहीं, चलेगी या डब्बा गोल, वे लोग तीन बार के मुख्यमंत्री और दो बार के प्रधानमंत्री के जनसमर्थन का वैसे ही खिल्ली उडाते हैं जैसे कोई सिरफिरा आसमान पर थूक रहा हो। बहरहाल कर्तव्यबोध की अपेक्षा मुझे कथित प्रगतिशीलों से कभी नहीं रही।

आज “शाहीन बाग” लाल-हरा संयुक्त गठबंधन है, लेकिन क्या यह सचमुच आंदोलन है? अथवा औरतों बच्चों की आड में पकती हुई राजनीति की बिरयानी? ठंड में ठिठुरती औरतों की जाबांजी है अथवा सडक बंद कर बडी आबादी को तंग करने का पैंतरा? इस दृष्टि से भी सोच कर देखें कि यदि सडक को बंद न किया जाता तो आंदोलन मर जाता? यदि ऐसी जगह का चुनाव होता जो आमजन को दैनिक रूप से असुविधा न पहुँचा रहा होता, तो क्या इस कथित आंदोलन को फिर भी लम्बा खींचा जा सकता था? पिछले कई दिनों से दिल्ली में ट्रैफिक की असुविधा का शिकार हुआ, कारण शाहीन बाग…. जिज्ञासा वश इस कथित आंदोलन के दीदार भी कर आया। मेरी कई गलतफहमियाँ दूर हुई, आप भी इस बात को रेखांकित कर लीजिये कि मीडिया जिस दिन इस-सब को तवज्जो देना बंद कर देगा, तम्बू लिपट जायेंगे। सडक बंद करना ही इस बात का द्योतक है कि आंदोलन के लिये निर्धारित किसी अन्य स्थान पर ऐसे एकत्रीकरण से लाल-हरा युति को सफलता मिलने की कोई गारंटी नहीं थी। होते जो इकट्ठा रामलीला मैदान में तो लाजिम है कि हम भी देखते…..।

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शाहीन बाग क्षेत्र में वे सैंकडो दूकाने जो महीने भर से बंद हैं, उन व्यापारियों-ठेलेवालों-खोमचेवालों-पापडबरी वालों, टायरपंचर वालों आदि के घर के चूल्हे कौन जलायेगा? मैं पाँच सौ रुपये ले कर आंदोलन करने वाली थ्योरी को बेनिफिट ऑफ डाउट देना चाहता हूँ, और मान कर चल रहा हूँ कि ऐसा नहीं हुआ होगा, तो भी, क्या सही नहीं कि नौकरी पर जाने के लिये निकला मध्यमवर्गीय आदमी, रास्ता बंद होने से तंग जाम भरे वैकल्पिक रास्तों में धक्के खाता कसमसाता हुआ विवशता से देखता है कि तुम्हारा कथित आंदोलन उसके मूलभूत अधिकार का अतिक्रमण है? वो वृद्ध जिसे अवरुद्ध रास्ता उसके आवागमन में बाधा पहुँचा रहा है, वह बीमार जिसे दिन रात के शोर से परेशानी है, वह विकलांग जो अवांछित बाधा से चिडचिडा रहा है…….ये भी शाहीन बाग कथित आंदोलन के साईड इफेक्ट्स हैं। यह तो साफ है कि रास्ता खोले जाते ही आंदोलन गिर जायेगा क्योंकि इसका आधार वह अराजकता है जो लोगों को परेशान करने से उपज रही है। असल आंदोलन तो उन लोगों का है जो सडक खुलवाने के लिये अदालत के चक्कर लगा रहे हैं। कोई इस पक्ष में भी तो खडा हो कि इन पीडितों को जितना जल्दी हो सके न्याय मिले।

एक मजेदार लेख एनडीटीवी की वेबसाईट पर संकेत उपाध्याय का पढने के लिये मिला शीर्षक है – “दशक में कुछ नहीं बदला, शाहीन बाग और अन्ना आंदोलन एक ही जैसे” समझ नहीं आता है ये लाल-पत्रकार क्या लोगों को बेवकूफ समझते हैं? अन्ना आंदोलन की परिणति चाहे जितनी भी नकारात्मक रही हो लेकिन उससे जुडने वाले लोग सभी धर्म, सभी रंग, विचार की सभी धाराओं से थे। अन्ना आंदोलन से जुडे लोगों को अपनी बात का प्रसार करने के लिये किसी सडक को बाधित करने की आवश्यकता नहीं हुई थी…। आंदोलन स्वत: स्फूर्त और सोद्देश्य होते हैं, डिजाईन नहीं किये जाते। उम्मीद है कि जल्दी ही शाहीन बाग वाले तम्बू किसी खुली जगह में गाड दिये जायेंगे…. शाहीन बाग की बंधक सडक को आजादी मिलेगी, आवागम फिर चल निकलेगा। हालांकि जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं आंदोलन अपने असल प्रतीकों, असल पोस्टरों और असल इरादों के साथ सामने आ रहा है। एजेंडा साफ होने लगा है और विरोध का यह एक्सपेरिमेंट विफल। राहत इंदौरी साहब से क्षमा याचना सहित उपसंहार में कहना चाहूँगा कि जहाँ मर्जी सडक रोक लेंगे, ये कैसी सीना जोरी है…मुखाल्फत हो इनकी, इन्ही के बाप का हिंदोस्तान थोडी है।

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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये लेखक के निजी विचार है।)

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