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बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और उनके विचारों की प्रासंगिकता

प्रतीक तिवारी

बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने संविधान सभा के भाषण में कहा था – “महोदय, संविधान सभा के कार्य पर नजर डालते हुए नौ दिसंबर,1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष, ग्यारह महीने और सत्रह दिन हो जाएंगे।जब प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था। मैं समझता हूं कि कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों”

बाबा साहेब ने संविधान सभा में दिये गये भाषण में कहा था कि स्वतंत्रता आनंद का विषय है, पर अब हमें अपनी जिम्मेदारियों पर भी ध्यान देना होगा। महात्मा गांधी जी और बाबासाहेब दोनों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सामाजिक निर्माण पर बल दिया।बाबासाहेब का मानना था की राजनीतिक प्रजातंत्र के साथ-२ हमें सामाजिक प्रजातंत्र की भी आवश्यकता है.वह कहते थे कि सामाजिक प्रजातंत्र एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में अपनाया जाता है।सामाजिक धरातल पर भारत में बहुस्तरीय असमानता है, कुछ को विकास के अवसर और अन्य को पतन के। जिस समाजवाद की बात बाबासाहेब अपने भाषण और वक्तव्यों में करते हैं उसे उनके कथित उत्तराधिकारियों ने सिर्फ एक वर्ग विशेष का समाजवाद बना कर आज राजनीतिक स्थायित्व की खोज में हैं।वे मानते थे कि यदि हमें वास्तव में एक राष्ट्र बनना है तो इन कठिनाइयों पर विजय पानी होगी, क्योंकि बंधुत्व तभी स्थापित हो सकता है जब हमारा एक राष्ट्र हो।आइए उनकी जन्मतिथि पर समाज के विभिन्न पहलुओं पर उनके विचारों से मुखातिब होते है –

सामाजिक समानता को लेकर बाबासाहेब

डॉ. अम्बेडकर समानता को लेकर काफी प्रतिबद्ध थे। उनका मानना था कि समानता का अधिकार धर्म और जाति से ऊपर होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को विकास के समान अवसर उपलब्ध कराना किसी भी समाज की प्रथम और अंतिम नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। अगर समाज इस दायित्व का निर्वहन नहीं कर सके तो उसे बदल देना चाहिए। वे मानते थे कि समाज में यह बदलाव सहज नहीं होता है, इसके लिए कई पद्धतियों को अपनाना पड़ता है। आज जब विश्व एक तरफ आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है तो वहीं दूसरी तरफ विश्व में असमानता की घटनाएँ भी देखने को मिल रही हैं। इसमें कोई दो राय नही है कि असमानता प्राकृतिक है, जिसके चलते व्यक्ति रंग, रूप, लम्बाई तथा बुद्धिमता आदि में एक-दूसरे से भिन्न होता है। लेकिन समस्या मानव द्वारा बनायी गई असमानता से है, जिसके तहत एक वर्ग, रंग व जाति का व्यक्ति अपने आप को अन्य से श्रेष्ठ समझ संसाधनों पर अपना अधिकार जमाता है। यूएनओ द्वारा इस संदर्भ में प्रति वर्ष नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया जाता है, जो आज भी समाज में व्याप्त असमानता को प्रकट करता है। भारत में इस स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 14 से 18 में समानता का अधिकार का प्रावधान करते हुए समान अवसरों की बात कही गई है। यह समानता सभी को समान अवसर उपलब्ध करा सकें, इसके लिए शोषित, दबे-कुचलों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। इस प्रकार अम्बेडकर के समानता के विचार न सिर्फ उन्हें भारत के संदर्भ में, बल्कि विश्व के संदर्भ में भी प्रासंगिक बनाते हैं।

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महिलाओं के संबंध में बाबासाहेब

डॉ अम्बेडकर भारतीय समाज में स्त्रियों की हीन दशा को लेकर काफी चिंतित थे। उनका मानना था कि स्त्रियों के सम्मानपूर्वक तथा स्वतंत्र जीवन के लिए शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। अम्बेडकर ने हमेशा स्त्री-पुरुष समानता का व्यापक समर्थन किया। यही कारण है कि उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम विधिमंत्री रहते हुए ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में प्रस्तुत किया और हिन्दू स्त्रियों के लिए न्याय सम्मत व्यवस्था बनाने के लिए इस विधेयक में उन्होंने व्यापक प्रावधान रखे। उल्लेखनीय है कि संसद में अपने हिन्दू कोड बिल मसौदे को रोके जाने पर उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की बात कही गई थी। दरअसल स्वतंत्रता के इतने वर्ष बीत जाने के पश्चात व्यावहारिक धरातल पर इन अधिकारों को लागू नहीं किया जा सका है, वहीं आज भी महिलाएँ उत्पीड़न, लैंगिक भेदभाव हिंसा, समान कार्य के लिए असमान वेतन, दहेज उत्पीड़न और संपत्ति के अधिकार ना मिलने जैसी समस्याओं से जूझ रही हैं। इस संदर्भ में ध्यान देने वाली बात है कि हाल ही में समान नागरिक संहिता का प्रश्न पुनः उठाया गया है। उसका व्यापक पैमाने पर विरोध किया गया, जबकि बाबा साहब अम्बेडकर ने समान नागरिक संहिता का प्रबल समर्थन किया था।

शिक्षा और अंबेडकर

अम्बेडकर शिक्षा के महत्व से भली-भाँति परिचित थे। दरअसल अछूत समझी जाने वाली जाति में जन्म लेने के चलते उन्हें अपने स्कूली जीवन में अनेक अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा था। उनका विश्वास था कि शिक्षा ही व्यक्ति में यह समझ विकसित करती है कि वह अन्य से अलग नहीं है, उसके भी समान अधिकार हैं। उन्होंने एक ऐसे राज्य के निर्माण की बात रखी, जहाँ सम्पूर्ण समाज शिक्षित हो। वे मानते थे कि शिक्षा ही व्यक्ति को अंधविश्वास, झूठ और आडम्बर से दूर करती है। शिक्षा का उद्देश्य लोगों में नैतिकता व जनकल्याण की भावना विकसित करने का होना चाहिए। शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो विकास के साथ-साथ चरित्र निर्माण में भी योगदान दे सके।

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उल्लेखनीय है कि डॉ. अम्बेडकर के शिक्षा संबंधित यह विचार आज शिक्षा प्रणाली के आदर्श रूप माने जाते हैं। उन्हीं के विचारों का प्रभाव है कि आज संविधान में शिक्षा के प्रसार में जातिगत, भौगोलिक व आर्थिक असमानताएँ बाधक न बन सके, इसके लिए मूलअधिकार के अनुच्छेद 21-A के तहत शिक्षा के अधिकार का प्रावधान किया गया है, जो उनकी प्रासंगिकता को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रमाणित करती है।

आर्थिक क्षेत्र

अम्बेडकर ने 1918 में प्रकाशित अपने लेख भारत में छोटी जोत और उनके उपचार (Small Holdings in India and their Remedies) में भारतीय कृषि तंत्र का स्पष्ट अवलोकन किया। उन्होंने भारतीय कृषि तंत्र का आलोचनात्मक परीक्षण करके कुछ महत्वपूर्ण परिणाम निकाले, जिनकी प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है। उनका मानना था कि यदि कृषि को अन्य आर्थिक उद्यमों के समान माना जाए तो बड़ी और छोटी जोतों का भेद समाप्त हो जाएगा, जिससे कृषि क्षेत्र में खुशहाली आएगी। उनके एक अन्य शोध ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास (The Evolution of Provincial Finance in British India) की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। उन्होंने इस शोध में देश के विकास के लिए एक सहज कर प्रणाली पर बल दिया। इसके लिए उन्होंने तत्कालीन सरकारी राजकोषीय व्यवस्था को स्वतंत्रत कर देने का विचार दिया। भारत में आर्थिक नियोजन तथा समकालीन आर्थिक मुद्दें व दीर्घकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए जिन संस्थानों को स्वतंत्रता के पश्चात स्थापित किया गया उनकी स्थापना में डॉ. अम्बेडकर का अहम योगदान रहा।

बाबा साहेब के जीवन पर गौर करें तो पता चलता है कि उनके सामाजिक चिन्तन में अस्पृश्यों, दलितों तथा शोषित वर्गों के उत्थान के लिए काफी संभावना झलकती है। वे उनके उत्थान के माध्यम से एक ऐसा आदर्श समाज स्थापित करना चाहते थे, जिसमें समानता, स्वतंत्रता तथा भ्रातृत्व के तत्व समाज के आधारभूत सिद्धांत हों।बाबासाहेब जिस प्रकार से आज प्रासंगिक होते जा रहें हैं वह शायद ही पहले कभी दृष्टिगोचर हुआ हो।आज हर एक आंदोलन में आप प्रायः बाबासाहेब की प्रतिमा के साथ संचालित होते हुए देख सकते हैं।क्योंकि इतने सालों बाद बाबासाहेब का साहित्य और उनका दर्शन जनमानस तक आसानी से पहुँच रहे हैं।उनके विचार आज किसी न किसी माध्यम से जनता तक सुलभ हो रहें हैं। बाबासाहेब की दूरदर्शिता भी उनको आज के समय में प्रासंगिकता प्रदान करती है। अगर इनके विचारों को अमल में लायें तो समाज की ज्यादातर समस्याएँ जैसे वर्ण, जाति, लिंग, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक सभी पहलुओं पर पैनी नजर रखी जा सकती है। साथ ही न्यू इंडिया के लिए एक नया मॉडल व डिजाइन भी तैयार किया जा सकता है।

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(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं।)

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