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रानी लक्ष्मी बाई : एक संघर्ष गाथा

क्रतिका सेन

रानीलक्ष्मी बाई भारत के इतिहास में अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अनेकानेक सिपाहियों से लड़ते हुए एवं निडर होकर, एक वीरांगना की तरह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ने वाली वीरांगनाओ में से एक रही है। उनके साहस एवं पराक्रम ने कई अन्य महिलाओ को स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होने के लिए प्रेरित किया। वे आज भी समस्त नारी समाज के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।

जीवन परिचय :

लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी शहर में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका वास्तविक नाम मणिकर्णिका ताम्बे था एवं सभी उन्हें प्यार से मनु बुलाते थे। उनके पिता जी का नाम मोरोपंत ताम्बे एवं माता जी का नाम भागीरथी बाई था। उनके जीवन के संघर्ष  की शुरुआत बचपन से ही हो गयी थी , जब मात्र 4 वर्ष की उम्र में ही उनकी माता जी का देहांत हो गया था। लक्ष्मीबाई के पिता जी पेशवा के दरबार में सेनानायक का पदभार संभालते थे। उन्होंने उनके घर पर ही पढ़ना लिखना, तीरंदाज़ी, तलवारबाज़ी, युद्धकौशलता, घुड़सवारी इत्यादि भी सीख ली।

मई 1842 में मणिकर्णिका की वीरता एवं कुशलता से प्रभावित होकर उनका विवाह झांसी के महाराजा गंगाधर राव नयालकर के साथ हुआ। महाराष्ट्रीय की परम्पराओं को निभाते हुए शादी के बाद उनका नाम हिंदू देवी लक्ष्मी के नाम पर “लक्ष्मीबाई” रखा गया। उनके संघर्ष एवं दुःख की गाथा यही खत्म नहीं होती इसके बाद उनके जीवन का असली संघर्ष की गाथा की शुरुआत होती है।

सन 1851 में, उन्होंने एक लड़के को जन्म दिया जिसका नाम दामोदर राव रखा गया, लेकिन कालचक्र की काया ने उन्हें ऐसा घेरा की चार महीने बाद उनकी मृत्यु हो गयी। उसके बाद उन्होंने उनके चचेरे भाई के बेटे को ब्रिटिश अधिकारियो के सामने कानूनी तरीके से गोद लिया एवं उनका नाम दामोदर राव रखा गया। लेकिन उसके अगले ही दिन लक्ष्मी बाई पर एक और दुःख उमड़ पड़ा, एवं उनके पति की भी मृत्यु हो गयी।

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संघर्ष गाथा :

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की नज़र शुरू से ही झाँसी पर थी, महाराजा गंगाधर की मृत्यु के बाद उन्होंने झाँसी को भी हथियाने की सोची। उन्होंने हड़प नीति के तहत दामोदर राव के उत्तराधिकारी बनने के दावे को खारिज कर दिया एवं रानी लक्ष्मी बाई को सन 1854 में 60,000 रूपए एवं उनके सभी महल और किले को छोड़ देने का आदेश भी भिजवा दिया।जब रानी लक्ष्मी बाई को यह पत्र मिला तो वो गुस्से से आग बबूला हो उठी और उन्होंने ब्रिटिशो को स्पष्ट रूप से कहा की “मैं आपनी झाँसी नहीं दूंगी”।

अगस्त 1857 से जनवरी 1858 तक झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के शासन झाँसी में शांति स्थापित हुई लेकिन उन्हें आने वाले खतरे का अंदाज़ा पहले से ही लगा हुआ था। इसीलिए उन्होंने ब्रिटिशो के खिलाफ 1857 के विद्रोह में शामिल होने की ठान ली। उनके पति की मृत्यु को ज़्यादा समय नहीं हुआ था लेकिन अपनी मातृभूमि की रक्षा और आत्मसम्मान की लड़ाई के लिए उन्होंने कमर कस ली। उन्होंने राजनीती, कूटनीति, युद्धनीति सभी तरह की नीतिया बनाई एवं अपने पडोसी राज्यों से भी सहायता भी मांगी ताकि वह ब्रिटिशो के खिलाफ होने वाली लड़ाई में विजय पा सके।

अंततः मार्च के महीने में ब्रिटिश सेना ने झाँसी पर हमला कर ही दिया लेकिन रानी लक्ष्मीबाई की तैयारियों से ब्रिटिशर्स भी आश्चर्यचकित हो गए। झाँसी के किले में कई सारी बारूद, बंदूके और तोपे थी। उन्होंने कई दिनों तक संघर्ष किया । उनके बचपन के मित्र तात्या टोपे से भी उन्होंने मदद की अपील की और उन्हें कुछ सहायता मिली भी। तात्या टोपे के नेतृत्व में 20,000  से अधिक की एक सेना झांसी को राहत देने के लिए निकल चुकी थी। लेकिन वे अंग्रेज़ो से लड़ने में असफल रहे। फिर भी उन्होंने ब्रिटिश सेना की ने घेराबंदी जारी रखी और अपनी जी जान लगा कर झाँसी को बचने की कोशिश भी की। थोड़े ही समय बाद उन्हें इस बात का अंदाज़ा लग गया की किले के अंदर से अंग्रेज़ो को मात देना आसान नहीं होगा, इसलिए उन्होंने तात्या टोपे और नाना साहिब के साथ शामिल होकर युद्ध करने का निश्चय किया और वे अपना किला छोड़ कर तात्या के साथ शामिल हो गयी।

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अपनी युद्ध कौशलता एवं सूझबूझ से काम लेकर तातिया टोपे और लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर शहर पर कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने वहाँ पर नाना साहिब को शासक के रूप में घोषित कर दिया, वहाँ से उन्होंने अतिरिक्त खजाना और अस्त्रों-शस्त्रों को भी आगे के युद्धों के लिए एकत्रित कर लिया था। ग्वालियर के बाद, लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना का सामना करने के लिए पूर्व में मोरार की ओर प्रस्थान किया।

रानी लक्ष्मी बाई ने कुशलता पूर्वक ब्रिटिश सेना का सामना किया उन्होंने कई सैनिको को धूल चटा दी और एक भारतीय महिला के पराक्रम का परिचय दिया। लेकिन अंत में वे मातृभूमि की रक्षा करते करते वीरगति को प्राप्त हो गई।

अंग्रेजों ने तीन दिन बाद ग्वालियर शहर पर फिर से कब्जा कर लिया। हालाँकि इस लड़ाई में ब्रिटिशो की जीत हुई थी लेकिन ब्रिटिश कमांडर ह्यूग रोज ने रानी लक्ष्मीबाई के व्यक्तित्व की तारीफ की और कहा की वह एक चतुर, समझदार और सुंदर रानी थी जो सभी भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों  में सबसे खतरनाक हैं”।

कहा जाता है की उन्हें ग्वालियर के फूल बाग इलाके में कुछ स्थानीय ग्रामीणों ने दफनाया था। उनकी वीरता के कायल सिर्फ रोज ही नहीं लेकिन कर्नल मल्लेसन भी थे । उन्होंने उनकी किताब हिस्ट्री ऑफ द इंडियन म्यूटिनी में लिखा की अंग्रेजों की आंखों में चाहे लक्ष्मीबाई का जो कुछ भी दोष था, उनके देशवासियों के लिए उनका विद्रोह सभी को प्रेरणा देने वाला था, वह सिर्फ अपने देश के लिए जी और मर भी गयी, हम भारत के प्रति उनके योगदान को नहीं भूल सकते।

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वर्तमान समय में रानी लक्ष्मी बाई सभी महिलाओं के लिए एक अद्भुत उदाहरण है, जिस तरह से उन्होंने मातृभूमि के लिए अपनी जान तक न्योछावर करने में संकोच तक नहीं किया वह हम सभी के लिए प्रेरणादायक है। उनकी युद्ध कुशलता और सूझबूझ आज भी हम सभी को आश्चर्यचकित कर देती है। अवश्य ही वह नारी सशक्तिकरण का एक सशक्त रूप है।

सिर्फ उनकी युद्ध कुशलता ही नहीं अपितु उनके समावेशी व्यवहार जिस वजह से उन्होंने कई राज्यों को एक साथ लाकर ब्रिटिशो के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी, आज के दशक में भी वह हम सभी के लिए आदर्श है और उनके बलिदान को यह भारत माता का एक एक सपूत नमन करता है। आज भी वे हम सभी के बीच में कविताओं पटकथाओं में जीवंत है :

बुंदेले हर बोलो के मुँह, हमने सुनी कहानी थी ,

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।

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