e-Magazine

कभी भी गरीब और लाचार नहीं रहा जनजाति समाज – प्रफुल्ल आकांत

अजीत कुमार सिंह

स्वाधीनता के 75 वर्ष पर भारत सरकार ने समाज की आकांक्षा और आवाज को समझकर भगवान बिरसा मुंडा की जंयती को ‘जनजाति गौरव दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया। सरकार के इस निर्णय से पूरा भारतीय समाज आनंदित है। भारत सरकार के निर्णय से जनजाति समाज की गौरवशाली परंपरा, निडरता, वीरता और शौर्यपूर्ण बलिदानी इतिहास  लोगों को जानने का मौका मिलेगा। षड़यंत्रपूर्वक जनजातियों की गौरवपूर्ण इतिहास को छिपाया गया। स्वाधीनता की लड़ाई में उनके द्वारा किये गये बलिदान, शौर्यपूर्ण संघर्ष को समाज का विद्रोह के रूप में दिखाने का प्रयास किया गया। वनवासियों को शेष भारतीय समाज से काटने लिए अनेकों षड़यंत्र रचे गये हैं। इस समाज को गरीब, लाचार और बेबस दिखाने का षड़यंत्र रचा गया जबकि यह सच से कोसों दूर है। भारत की स्वाधीनता की लड़ाई में देश का कोई ऐसा भाग नहीं जहां पर जनजाति समाज ने बढ़चढ़कर भाग नहीं लिया। यह समाज हमेशा से ही स्वाभिमानी और भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए समर्पित रहा है। जनजाति समाज कभी भी गरीब और लाचार नहीं रहा है। ये बातें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री प्रफुल्ल आकांत ने जनजाति गौरव दिवस के पूर्व संध्या पर अभाविप द्वारा आयोजित  फेसबुक लाइव चर्चा के दौरान कही।

अभाविप के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री प्रफुल्ल आकांत ने कहा कि 1891 में भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका और सतत संघर्ष किया। इस दौरान पूरा समाज उनके साथ खड़ा रहा। वह कालखंड स्वाधीनता के आंदोलन में रंग गया। बिरसा मुंडा के कृतित्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, समाज उन्हें अपना ‘धरती आबा’ यानी धरती का भगवान मानता है। बिरसा मुंडा को भगवान के रूप में समाज ने स्वीकार्य किया। 1895 में जब धरती आबा ने यात्रा निकाली तो गांव – गांव के लोगों ने इसका समर्थन किया। देश भर में हुए इस संघर्ष से ब्रिटिश डर गये और जनजातीय समाज को बदनाम करने, बांटने की साजिश रचने लगे। जनजातियों को जंगल से बेदखल करने के लिए वन अधिनियम लाया गया। अंग्रेजों के द्वारा लाये गये इस अधिनियम के बाद वनों की संख्या, जानवरों की संख्या पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि अधिनियम लाने के बाद वनो का ह्रास ज्यादा हुए, वनप्राणियों की संख्या अपेक्षित कम हुए। प्रकृति की रक्षा के लिए संकल्पित वनवासी समाज ने जंगल और प्रकृति की रक्षा के लिए अपना सबकुछ लगा दिया। हमें लगता है बहुगुणा बंधु को चिपको आंदोलन की प्रेरणा वनवासी समाज से ही मिला होगा।

READ  ABVP and DUSU Filed Complaints Against Leftist Students Spreading Fake Videos Tarnishing ABVP's Image

राजाशंकर साह और रघुनाथ साह  ब्रिटिश के शरण में आने से मना कर दिया और देश को स्वाधीन करने के लिए ब्रिटिश के खिलाफ बिगुल फूंका। इनके विद्रोह से ब्रिटिश इतने डर गये कि राजाशंकर साह व रघुनाथ साह को तोपों से बांधकर उड़ा दिया। ब्रिटिश सरकार को यह समझ में आ गया था कि जब तक इस समाज को बांटा नहीं जायेगा तब तक हम भारत में राज नहीं कर पायेंगे। यही कारण है कि जनजाति समाज को बांटने के लिए ब्रिटिश ने तरह – तरह के षड़यंत्र किये, जिसका साथ वामपंथियों ने दिया। भले ही ब्रिटिश भारत को छोड़कर चले गये हों लेकिन वामपंथियों का कुलषित प्रयास अभी तक जारी है। कभी मूलवासी – गैरवासी के नाम पर, कभी अगड़ा – पिछड़ा, कभी आदिवासी – गैर आदिवासी के नाम पर लड़ाये जाने का कुत्सित प्रयास करते रहते हैं। जनजातियों को भारतीय परंपरा से काटने के उद्देश्य से 9 अगस्त को आदिवासी दिवस के रूप में व्यापक स्तर पर प्रचारित और प्रसारित किया जाता है जबकि इस आदिवासी दिवस का भारत के जनजातियों के साथ दूर – दूर तक कोई संबंध नहीं है। साल 1994 में अमेरिका से अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस की शुरुआत हुई थी। दरअसल अमेरिका में पहली बार साल 1994 में आदिवासी दिवस कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। जिसके बाद से हर साल 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस का आयोजन किया जाता है। षड़यंत्रपूर्वक जनजातियों को गैर सनातनी दिखाने का प्रयास किया जाता है जबकि जनजातीय समाज सनातन परंपरा के वाहक हैं। दंतेवाड़ा में स्थित मां दंतेश्वरी के पूजारी जनजाति हैं। भगवान जगन्नाथ के मंदिर के पूजा का दायित्व भी इसी समाज को है। जनजातीय समाज का हर पर्व प्रकृति और सनातन को समर्पित है।

READ  अभाविप प्रतिनिधिमंडल ने एनटीए में सुधार के लिए गठित उच्चस्तरीय समिति को दिए सुझाव

जब हम स्वाधीनता के अमृत वर्ष को मना रहे हैं तो हमलोगों का दायित्व बनता है कि समाज के बलिदानियों गाथा को लोगों के बीच लायें। आखिर क्या कारण है कि खासी विद्रोह, संथाल विद्रोह, जरवाड़ आंदोलन, टाना  भगत आंदोलन, रानी गाइदिन्ल्यू, सिद्धो – कान्हो इत्यादि के योगदान को विद्रोह तक सीमित कर दिया गया। भारत की स्वतंत्रता, संस्कृति और परंपरा के लिए किये गये उनके बलिदान को इतिहास में सही जगह नहीं दिया गया। समय है कि  जनजाति गौरव दिवस को सिर्फ भगवान बिरसा मुंडा की जंयती के तौर पर मनाने के बजाय जनजातीय समाज के ऐतिहासिक गौरवशाली परंपरा, उनके अदम्य साहस, अमूल्य बलिदान, कौशल, वीरता को पुनर्स्थापित कर अमिट बनायें।

×
shares