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अभाविप : संघर्ष, संवेदना एवं सृजन का तिराहा

सतत प्रवाही छात्र शक्ति का ही दूसरा नाम है अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद। भारत की स्वाधीनता के साथ ही भारत की छात्र-शक्ति को संगठित करने की आवश्यकता जिन महानुभावों के मन-मस्तिष्क में उभरी होगी उन सबके द्वारा बोया गया 1948 का वह बीज आज वटवृक्ष बन चुका है। भारत की ही नहीं संपूर्ण विश्व की संगठित छात्र-शक्ति का सबसे बड़ा मंच है अ.भा.वि.प.। ए.बी.वी.पी अथवा विद्यार्थी परिषद के नाते अपनी पहचान बनाकर युवा-शक्ति को गौरवान्वित करने वाले इस संगठन का बहुआयामी स्वरूप इसकी पहचान में चार-चांद लगा देता है।

विद्यार्थी परिषद बहुआयामी कैसे बना ? लगातार पीढ़ी-दर-पीढ़ी कैसे बहुआयामी बने रह पाया ? नये-नये आयामों को जोड़ते हुए भी आगे कैसे बढ़ेगा ? इसमें कौन से वह तत्व विद्यमान है जो इस स्वरूप को भविष्य में भी दशकों तक ही  नहीं तो शतकों तक भी बनाए रख पाएंगे ? यह शोध का विषय नहीं है, यह तो केवल मात्र अनुभूति का विषय है। जो भी कोई इस संगठन के तंत्र से जुड़ता है वह इस अनुभूति का सहज ही भागीदार बन जाता है। अनायास ही उस अनुभूति को अपने में समाहित करता है। सहज ही अपने संगी-साथियों में उसे संक्रमित भी करता है। यही अनुभूति उसके आचरण का एवं स्वभाव का एक अविभाज्य अंग बनकर उसके व्यक्तित्व को निखारने में मददगार बनती है। उसे आजीवन समाजसेवा या सामाजिक कार्य करते रहने की प्रेरणा देती है। सबके साथ मिलकर कुछ कर दिखाने की उमंग जिसमें हो ऐसे रचनाधर्मी समाजसेवी कार्यकर्ताओं का निर्माण ही विद्यार्थी परिषद की सबसे बड़ी एवं प्रमुख उपलब्धि है। यही विद्यार्थी परिषद की निरंतरता का अंतस्रोत है।

विद्यार्थी परिषद में जमीनी स्तर पर कार्य करने का अवसर सामान्यतः आयु के 16 से 24 वर्ष तक के कालखंड का होता है। सन 1963 से 1968, इन 6 वर्षों के मेरे छात्र जीवन का वह स्वर्णिम काल था जो भुलाए नहीं भूलता। विद्यार्थी परिषद के कार्य का नागपुर में प्राप्त किया हुआ एक वर्ष का अनुभव बाद में जिला प्रमुख के नाते बुलढाना जिले में काम आया। बुलढाना, चिखली, मेहकर, खामगांव, मलकापुर आदि स्थानों पर महाविद्यालयों में जाना, छात्र-छात्राओं में मस्ती के साथ काम करना, मारपीट से लेकर छात्र संघों के चुनावी दाव-पेंच, साथ-साथ पढ़ाई, अच्छे परीक्षा परिणामों की चिंता, भविष्य की योजना के लिए विचार-विमर्श तथा इन सब गतिविधियों के लिए उचित मार्गदर्शन करने वाले दो-तीन प्राध्यापकों का सानिध्य आदि के साथ नियमित शाखा में जाना मेरे लिए सोने में सुहागे का काम करता था। आज के छात्र को, आज का नागरिक बनाने की प्रक्रिया के रूप में विद्यार्थी परिषद की गतिविधियों को देखने एवं जीने का ऐसा अवसर हर उस सदस्य एवं विशेषकर सामान्य से सामान्य कार्यकर्ता को प्राप्त होता है जो अपने आपको सक्रिय रखता है। अपने जीवन का यही अनुभव मेरे प्रचारक जीवन में तब काम आया जब सन 1976 से 1985 तक, पहले पूर्वोत्तर क्षेत्र तथा बाद में उत्तर क्षेत्र के संगठन मंत्री के नाते मुझे विद्यार्थी परिषद का दायित्व सौंपा गया। पीढ़ी बदल चुकी थी परन्तु निरंतरता बनी हुई थी। अतः कभी  किसी को कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा।

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विद्यार्थी परिषद ने यह व्यवस्था की हुई है कि नवागत छात्र-छात्राओं का मित्रवत व्यवहार से स्वागत किया जाए। विद्यालय की पढ़ाई पूरी कर महाविद्यालय में प्रवेश करने वाले विद्यार्थी का आनंददायी वातावरण में किया गया यह स्वागत मित्रवत व्यवहार की अनुकूलता निर्माण कर देता है। रैगिंग नहीं हगिंग अर्थात सताना नहीं गले लगाना यह परंपरा आपसी मित्रता, विश्वास एवं अपनत्व को बढ़ाता है। केवल हमउम्र की मित्रता जीवन में पर्याप्त नहीं होती। यही कारण है कि ”प्राप्तेतु षोडशे वर्षे पुत्र मित्रवत आचरेत“ यह सूत्र विद्यार्थी परिषद ने अपने सांगठनिक ढांचे में अपनाया है। संगठन में विद्यार्थी के साथ प्राध्यापकों को अध्यक्षीय पद देकर उनके द्वारा पितृवत मार्गदर्शन उपलब्ध होता रहे, यही इसके मूल में विचार रहा है। राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक प्राध्यापकों का अध्यक्षीय पद, मित्रवत व्यवहार एवं पितृवत मार्गदर्शक का पद है। देशभर में इस पद की एक लम्बी तालिका बन जाती है। विगत इतिहास को टटोले तो राष्ट्रीय स्तर पर लगातार तीन पीढ़ियों तक इस परंपरा को निभाने के बाद अब चौथी पीढ़ी की समाप्ति होने जा रही है। पांचवी पीढ़ी उभर रही है।

उपरोक्त चार पीढ़ियों में राष्ट्रीय स्तर पर मित्रवत व्यवहार एवं पितृवत मार्गदर्शन के प्रेरणादायी उदाहरणों की श्रृंखला में अब तक सभी प्राध्यापक हरिवंशलाल ओबेराय, वी.नागराजन, एम.बी. कृष्णराव, दत्ताजी डिडोलकर, गिरिराज किशोर, यशवंतराव केलकर, नारायणभाई भंडारी, बाल आपटे, आदि दिवंगत आत्माओं का स्मरण भी हमें प्रेरणा देता है। इन दिवंगत आत्माओं के मध्यमणि थे प्रो.यशवंतराव केलकर। प्रांतीय एवं स्थानीय स्तर पर कार्यरत प्राध्यापक इन के जीवन से प्रेरणा लेकर एवं उनके आचरण का अनुसरण कर मित्रवत आचरण के साथ पितृवत मार्गदर्शन की परंपरा को नीचे तक ले जाते रहे हैं। इसी परंपरा को निभाते हुए चौथी पीढ़ी निवृत होने जा रही है। सैकड़ों कार्यकर्ताओं के व्यक्तित्व को निखार कर उन्हें सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक, शैक्षणिक, प्रशासनिक, व्यावसायिक आदि हर क्षेत्र में नेतृत्व देने योग्य बनाने की यह प्रक्रिया अनवरत चल रही है। चलती रहेगी।

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इसकी निरंतरता को बनाए रखने में भ्रातृवत स्नेह एवं मित्रवत सहयोग देने वाली एक और व्यवस्था संगठन ने खड़ी की है। पूर्णकालीन कार्यकर्ता एवं संघ प्रचारक के नाते संगठनात्मक दायित्व संभालने वाले संघ कार्यकर्ताओं की भी एक लंबी तालिका है। कुछ दिवंगतों को स्मरण करने की कड़ी में स्व.शालिगराम तोमर, गौरीशंकर, सुनील उपाध्याय तथा सैकड़ों वे कार्यकर्ता भी सूचीबद्ध किए जा सकते हैं जिन्होंने नक्सली, माओवादी, आतंकवादी एवं अलगाववादी प्रवृत्ति के हिंसाचारों का प्रतिकार करते हुए अपने जीवन की बाजी लगा दी। उनके उस बलिदान की नींव पर खड़े इस भवन को भला कौन डिगा सकता है ? संगठन के इसी ढांचे के बलबूते व्यक्ति से व्यक्तित्व उभरे हैं, उभरते ही रहेंगे। यही वह स्थायी तत्व है जो विद्यार्थी परिषद के बहुआयामी स्वरूप को सुदूर भविष्य तक भी बनाए रख पाएगा।

व्यक्तित्व निर्माण एवं निखार के लिए जिन तीन बातों पर विद्यार्थी परिषद अपना ध्यान केन्द्रित करती है वे बातें है- शारीरिक दृष्टि से संघर्षशील होना, मानसिक दृष्टि से संवेदनशील एवं बौद्धिक दृष्टि से सृजनशील अर्थात रचनाधर्मी होना एक अच्छे कार्यकर्ता का लक्षण माना गया है। ऐसे कार्यकर्ताओं के निर्माण में कार्यक्रमों का स्वरूप भी मददगार बन जाता है। वर्षभर में आंदोलनात्मक गतिविधि का प्रारंभ विश्वविद्यालय के परिसर से ही होता है। स्वस्थ शरीर ही वह कर पाएगा। समस्या जिस आकार की होगी आंदोलन का व्याप उतना ही बड़ा होगा। महाविद्यालय में छात्रावास की व्यवस्था से लेकर राष्ट्रव्यापी घुसपैठ की समस्या के समाधान के लिए किए गए आंदोलन विद्यार्थी परिषद से जुड़े हर कार्यकर्ता को देशव्यापी दृष्टि देती है और उसके निराकरण के लिए नागरिक कर्तव्य की पुष्टि का समाधान भी दिलाती है।

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संवेदनशील मन ही मनुष्य में सामाजिक सरोकार जगाता है। आंखों के सामने कोई दुर्घटना हो या आंखों से ओझल किसी पिछड़ेपन की समस्या हो, उसके प्रति संवेदना जगाने के लिए मलिन बस्ती में सेवा कार्य, जनजाति क्षेत्र में अनुभव शिविर एवं महिला सशक्तिकरण के लिए स्वावलंबन की योजनाओं का क्रियान्वयन आदि गतिविधियां चलती रहती हैं। अंतरराज्य छात्र जीवन-दर्शन (स्टूडेंटस एक्सपीरियंस इन इन्टरस्टेट लिविंग) SEIL का कार्यक्रम उसी श्रृंखला में एक सशक्त अभियान है।

सृजनशील बुद्धि नकारात्मकता या हताशा से दूर रखकर किसी भी मनुष्य को सकारात्मक सोच की ओर प्रवृत्त करती है। पिछड़ी बस्ती में संस्कार केन्द्र, व्यवस्था परिवर्तन के लिए जनजागरण तथा जनप्रबोधन लिए संगोष्ठियों का आयोजन, साथ ही कौशल विकास के लिए कार्यशालाओं का आयोजन सृजनशीलता को स्थायित्व देकर समस्याओं का स्थायी समाधान कर पाने की स्थिति बना सकती है।

कार्यक्रमों की तालिका या उसका विवरण देना इस आलेख का विषय नहीं है। परन्तु जागृत छात्र-शक्ति किस प्रकार लोकतंत्र की रक्षा के लिए आपातकाल के घोरतम संकट से जूझने के लिए तैयार होती है, किस तरह असम में हो रही घुसपैठ की भयावहता के प्रति देश को सतर्क एवं सजग करने के लिए सत्याग्रह करती है, किस प्रकार कश्मीर में तिरंगा झंडा फहराकर देशद्रोही ताकतों को चुनौती देती है, किस प्रकार भ्रष्टाचार, कदाचार एवं व्याभिचार आदि का डटकर विरोध करने की हिम्मत दिखाते हुए नकल पर रोक लगवाती है, किस प्रकार शैक्षिक स्तर ऊंचा उठाने के लिए पठन-पाठन कि प्रक्रिया में सहयोग देने की तत्परता दिखाती है आदि बातें छात्र-शक्ति ही राष्ट्र-शक्ति होने के विद्यार्थी परिषद के सिद्धांत को पुष्ट करती है। छात्र-शक्ति राष्ट्र-शक्ति, मुंबई हो या गुवाहाटी अपना देश अपनी माटी, जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है आदि नारे, नारे नहीं वादे हैं। जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा यही विद्यार्थी परिषद की पहचान है।

(लेखक 1976 से 1986 तक पूर्वोत्तर क्षेत्र एवं 1981 से 1985 तक अभाविप उत्तर क्षेत्र के संगठन मंत्री रह चुके हैं।)

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