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अमर बलिदानी शंकर शाह और रघुनाथ शाह

अर्जित चित्रांश

1857 की क्रान्ति रूपी हवनकुंड में यूँ तो अनगिनत लोगों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी, लेकिन कुछ लोगों के बलिदान की तपिश ने सम्पूर्ण जन समूह में ‘स्व’ की भावना को गति प्रदान की। उनमें से एक थी पिता-पुत्र की जोड़ी, शंकर शाह और रघुनाथ शाह की जोड़ी।

शंकर शाह का जन्म मंडला के किले में हुआ था। जिसका निर्माण उनके पूर्वज नरहरि शाह या नरेंद्र शाह ने 1698 में कराया था। इस किले का वैशिष्ट्य यही था कि यह किला सुरक्षा की दृष्टि से तीन ओर माँ नर्मदाजी की अथाह जलराशि से घिरा हुआ था तो एक ओर से ऊँची-ऊँची प्राचीर से। नरहरि शाह और सुमेर (सुमेद) शाह आपस में चचेरे भाई थे। दोनों में गोंड साम्राज्य की सत्ता को लेकर संघर्ष चल रहा था। सुमेर शाह को सागर के मराठा राजा का संरक्षण था तो नरहरि शाह को नागपुर के भोंसले राजा का संरक्षण, किंतु 1818 में मंडला का गोंड साम्राज्य अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया। शंकर शाह अपने पूर्वजों की भाँति स्वतंत्र राजा नहीं रहे, अब इनके पास गढ़ा पुरवा और आसपास के कुछ गाँव की जागीर मिलाकर कुल 947 बीघा जमीन ही थी और शेष अंग्रेजों ने कूटनीति से हथियाकर अपने अधिकार क्षेत्र में ले ली थी। इन्हें मात्र कुछ रुपए की पेंशन प्राप्त होती थी। शंकर शाह का विवाह रानी फूलकुँवर से हुआ था। इनका एक पुत्र था – रघुनाथ शाह। रघुनाथ शाह का विवाह रानी मनकुँवर से हुआ था।

1857 की क्रांति का बिगुल बज चुका था। दिल्ली और मेरठ क्षेत्र की घटनाओं की खबर जब जबलपुर पहुँची तो वहाँ 19 और 22 मई को बहुत उत्तेजना फैली। जब 1857 में जबलपुर में विद्रोह हुआ तो राजा शंकर शाह की भावनाएँ उद्वेलित हुई और जबलपुर जल्द ही विद्रोही गतिविधियों का केन्द्र बन गया। 8 जून की झाँसी की घटनाओं की खबर के बाद कुछ सप्ताहों तक जबलपुर जिले में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुई। लेकिन 16 जून को एक अंग्रेजी अफसर एडजुटेन्ट मिलर पर उसी की रेजिमेन्ट के एक सिपाही ने अपनी बन्दूक से आक्रमण किया जिससे उसे मामूली खरोंच आयी। सिपाही को बनारस ले जाया गया और बाद में उसे फाँसी दे दी गयी। 1 जुलाई को सागर में हुए सैनिक विद्रोह का समाचार प्राप्त होने के बाद जबलपुर में स्थित 52 वीं बटालियन की तीन कम्पनियों ने विरोध में अपनी बन्दूकें तान ली किन्तु उन्हें शान्त कर दिया गया। स्थिति की नज़ाकत देखते हुए कामठी से सेना बुलायी गयी और उसे कुछ दिन वहां रोक कर अधिकतर सेना को पड़ोसी जिलों को भेज दिया गया।

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सितम्बर के प्रथम सप्ताह में 52 वीं पल्टन के कैप्टन मोक्सोन को गुप्तचरों से जानकारी मिली कि कुछ सिपाही  जबलपुर के पास रह रहे पेंशनयाफ्ता राजा शंकरशाह के नेतृत्व में यूरोपियनों पर आक्रमण कर, उनकी हत्या करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। मोक्सोन ने इस षड्यंत्र के बारे में असिस्टेंट कमिश्नर लै. बाल्डविन को इसकी सूचना भेजी। उसने जाँच की पर जानकारी गलत पायी गयी। लेकिन कुछ दिनों बाद डिप्टी कमिश्नर को जानकारी मिली कि राजा शंकरशाह और उसका बेटा रघुनाथ शाह, कई जमींदारों और उनके अनुयायियों के साथ, 52 वीं रेजीमेन्ट के कुछ सिपाहियों के साथ मिलकर मुहर्रम के अन्तिम दिन केन्टोनमेन्ट पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं। सूचना मिलने पर डिप्टी कमिश्नर ने षड्यंत्र के बारे में ज्यादा जानकारी पाने के लिए फकीर के वेश में एक चपरासी भेजा और यह योजना सफल हुई क्योंकि राजा और उसका बेटा फकीर के वेश में चपरासी को पहचान नहीं पाये और उन्होंने बेझिझक उसे अपना मन्तव्य, योजना को पूरा करने के लिए अपनाये जाने वाले तरीकों के बारे में बता दिया। प्राप्त जानकारी के आधार पर दूसरे दिन (14 सितम्बर) डिप्टी कमिष्नर और लै. बाल्डविन 20 सवारों तथा 40 पुलिस के दल के साथ पुरवा गये और राजा, उसके बेटे रघुनाथ शाह और करीबी 14 लोगों को घर में बन्दी बना लिया।

राजा के घर की तलाशी लेने पर विद्रोहात्मक प्रवृत्ति जाहिर करने वाले कई कागजात मिले। खास तौर पर एक कागज का टुकड़ा मिला जिसमें राजा ने देवी की प्रार्थना लिखी थी जिसमें ब्रिटिश सरकार को खत्म करके स्वराज्य स्थापित करने के लिए देवी से सहायता की याचना की गई थी। उसी तरह की प्रार्थना उसके बेटे रघुनाथशाह की हस्तलिपि में भी मिली थी। वह प्रार्थना कुछ इस प्रकार थी –

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मूंद मुख डंडिन को चुगलौ को चबाई खाई

खूंद डार दुष्टन को शत्रु संघारिका

मार अंगरेज, रेज कर देइ मात चंडी

बचै नहिं बैरी-बाल-बच्चे संघारका ।।

संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर

दीन की पुकार सुन अय मात कालका

खाइले मलेछन को, देर नहीं करौ मात

भच्छन कर तत्छन बेग घौर मत कालिका ।।”

राजा शंकरशाह और उसके बेटे के बन्दी बनाये जाने के बाद जबलपुर की स्थिति संकटपूर्ण हो गयी। उन्हें बचाने की कोशिश की गयी लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। राजा और उसके बेटे पर ब्रिटिश राज के विरुद्ध साजिश करने का मुकदमा चलाया गया। दूसरे दिन कमिश्नर और अन्य दो अधिकारियों के एक कमीशन ने राजा और उसके बेटे पर मुकदमा चलाया । यूरोपियनों को खत्म करने की साजिश में उनका हाथ सिद्ध होने के सबूत में उन्हें तोप से उड़ा दिये जाने का दण्ड दिया गया। 1857 के विद्रोह के समय राजा शंकरशाह आयु के 70 वर्ष पूर्ण कर चुके थे और उनके पुत्र की आयु 40 के निकट थी।

एक अधिकारी जो शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ाये जाने के समय वहाँ मौजूद था, इस घटना का लोहमर्षक विवरण देता है। वह लिखता है- “मैं अभी-अभी विद्रोही राजा और उनके पुत्र को तोप से उड़ाये जाने का दृश्य देखकर वापस लौटा हूँ। वह एक भयानक दृश्य था… जब उन्हें तोप के मुँह पर बाँधा जा रहा था तो उन्होंने प्रार्थना की कि भगवान उनके बच्चों की रक्षा करें ताकि वे अंग्रेजों को खत्म कर सकें … वृद्ध पुरुष और साथ ही युवा के पैर और हाथ, जो तोप से बाँध दिये गये थे, तोप के मुँह के पास पड़े थे और शरीर का ऊपरी भाग सामने की ओर लगभग पचास गज की दूरी पर जा गिरा था पर उन दोनों का चेहरा अभी भी शान्त और गंभीर था।

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यह पूरी कार्यवाही सार्वजनिक रूप से की गयी थी और लोगों को यह दृश्य देखने के लिए बुलाया गया, जिससे जनसामान्य में भय पैदा किया जा सके । 70 साल का बूढ़ा आदमी, जिस दृढ़ता और साहस के साथ तोपों तक स्वयं चलकर आया जैसे मृत्यु से उसे कोई भय ही न हो, उसके सफेद केशों और गौरवपूर्ण रूप ने लोगों के हृदय में करुणा व देशभक्ति की भावना को प्रेरित किया । जब उन्हें तोप से उड़ा दिया गया उसके बाद रानी की तरफ से अधजले अवशेषों को एकत्र किया गया और विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया गया । इस तरह इस पिता-पुत्र की जोड़ी ने देश की अस्मिता और अखंडता की रक्षा हेतु सहर्ष अपना बलिदान कर दिया। मध्यप्रदेश में क्रांति के इतिहास पर जब-जब बात होगी तब-तब इन पिता-पुत्र की जोड़ी को सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।

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