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नरेंद्र मोदी को जिताने वाले कौन हैं, क्या चाहते हैं ?

2004 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को 145 सीटें ही मिल सकीं थीं और भाजपा की सीटें 182 से घटकर 138 रह गईं थीं। तब कहा गया कि इंडिया शाइनिंग उल्टा पड़ गया। उस समय देश में माहौल बनाने-बिगाड़ने का काम वही अमर्त्य सेन जैसे स्वनामधन्य संपादक और बुद्धिजीवी करते थे.

नरेंद्र मोदी को जब देश की जनता प्रचंड बहुमत देती है तो दुनिया में प्रसिद्ध भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते हैं कि नरेंद्र मोदी ने सत्ता भले जीत ली है, लेकिन विचारों का युद्ध नहीं जीते हैं। नरेंद्र मोदी की जीत को समझने के लिए यही सूत्रवाक्य है। आजादी के बाद से लगातार देश की जनता सरकार चुनती थी कि सरकार में चुनकर पहुंचे लोग उसकी भलाई का काम करेंगे, लेकिन सरकार में आते ही काम को छोड़कर अमर्त्य सेन जैसे बुद्धिजीवियों की इच्छा से देश की जनता के साथ वैचारिक युद्ध शुरू करने वाले नेताओं ने कब जनता का भरोसा पूरी तरह से खो दिया, इसका उन्हें अन्दाजा भी नहीं हुआ। अन्दाजा न हो पाने की असली वजह भी यही थी कि सरकार के अलावा कांग्रेस और अभी के पूरे विपक्ष के पास जनता से जुड़ने का कोई तरीका ही नहीं था। और, देश की जनता से काटने का काम इसलिए भी और सलीके से हो गया कि मुसलमान मतों के किसी भी हाल में भाजपा विरोध में जाना तय हो गया था। आजादी के बाद से ही सत्ता सिर्फ कांग्रेस ही चला सकती है, इसे भी जोर शोर से स्थापित किया गया और राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय भावना को खत्म करके आयातित विचार को स्थापित करने की जहरीली मंशा में वामपंथ ने कांग्रेस को सत्ताधारी पार्टी स्थापित करने में पूरा साथ दिया। इसके एवज में वैचारिक अधिष्ठानों पर वामपंथी बुद्धिजीवियों को कब्जा देते कांग्रेस ने कब आजादी के पहले वाली कांग्रेस को दफन कर दिया, उसे पता ही न चला। इस सब पर आखिरी कील ठोंकी गयी, जब 17 अप्रैल 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सिर्फ 1 मत से विश्वासमत हार गयी। अटल बिहारी बाजपेयी सदन में विश्वासमत भले हार गये, लेकिन सच्चाई यही थी कि देश की जनता का विश्वास अटल जी ने जीत लिया था। जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। उसके बाद तुरंत हुए चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में 20 पार्टियों वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 269 सीटें मिलीं थीं और तब 29 सीटें जीतने वाली चंद्रबाबू नायडू की तेलुगुदेशम पार्टी ने अटल जी की सरकार को समर्थन दे दिया था। सितम्बर-अक्टूबर 1999 में हुए उस चुनाव में भाजपा को करीब 24 प्रतिशत और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 37 प्रतिशत से ज्यादा मत मिले थे। भारतीय जनता पार्टी को अकेले 182 सीटें मिलीं थीं और उस समय कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने इसे चेतावनी के तौर पर देखने के बजाय ऐसे देखा कि अभी भी पूर्ण बहुमत से करीब 100 सीटों की कमी भाजपा को रह गयी है और 2004 में जब भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने रह गयी तो कांग्रेस सहित दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियों और बुद्धिजीवियों ने इसे पक्के तौर पर स्थापित करने में अपनी ताकत लगा दी जबकि 2004 में सरकार बनी तो इसका मौका कांग्रेस लोगों तक जाने में कर सकती थी, लेकिन सरकार में आते ही कांग्रेस सिर्फ शासन करती है और वही कांग्रेस ने 2004 में भी किया।

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2004 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को 145 सीटें ही मिल सकीं थीं और भाजपा की सीटें 182 से घटकर 138 रह गईं थीं। तब कहा गया कि इंडिया शाइनिंग उल्टा पड़ गया। उस समय देश में माहौल बनाने-बिगाड़ने का काम वही अमर्त्य सेन जैसे स्वनामधन्य संपादक और बुद्धिजीवी करते थे जो वैचारिक युद्ध की मुद्रा में हमेशा रहते थे, उन्हें देश की जनता के लिए सरकार काम करे, इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं था। कमाल की बात वैचारिक युद्ध लड़ते खुद को वो सरकोरी भी कहा करते थे। कांग्रेस की सत्ता में भ्रष्टाचार जमकर हुआ, लेकिन 2009 में अटल बिहारी वाजपेयी के सक्रिय राजनीति में न होने और लालकृष्ण आडवाणी के पारंपरिक तरीके से कांग्रेस को चुनौती देने की वजह से कांग्रेस को ही फायदा हो गया और इसकी बुनियाद पक्की करने में स्वनामधन्य संपादकों और बुद्धिजीवियों ने खूब काम किया। कांग्रेसी सत्ता के सहयोग से खड़े हो गये कई बड़े मीडिया घराने इसका साक्षात प्रमाण हैं। कांग्रेसी सत्ता के सहयोग से खड़े और बड़े हुए मीडिया संस्थानों की बनाई हवा में कांग्रेस को 2009 के लोकसभा चुनाव में अकेले 209 सीटें मिल गईं और भाजपा लालकृष्ण आडवाणी की अगुआई में 138 से घटकर 116 पर आ गई, लेकिन इसी बीच 21 मार्च 2005 को सैन फ्रांसिस्को में ट्विटर की शुरुआत हो गयी थी और उससे पहले फरवरी 2004 को मेसाचुसेट्स में फेसबुक की शुरुआत हो गयी। सिर्फ सत्ता और स्वनामधन्य संपादक और बुद्धिजीवियों के जरिये जनता से संपर्क करने वाली कांग्रेस पार्टी और दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियों को इसका अन्दाजा ही नहीं था कि दुनिया में बातचीत करने, संपर्क करने के तरीके में कितना बड़ा बदलाव होने जा रहा है। संयोग देखिए कि मार्च 2009 में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को डॉक्टर मोहनराव भागवत नये सरसंघचालक के तौर पर संघ को एकदम से समयानुकूल करने का व्रत लेकर आ चुके थे। भागवत जी ने लगातार एक कुंआं, एक मंदिर, एक श्मशान को स्थापित करना शुरू किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पहले सरसंघचालक डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार जी जैसे दिखने वाले भागवत जी संघ को पुनर्स्थापित कर रहे थे। दोबारा बिना किसी पक्की वजह के सत्ता में आई कांग्रेस और दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियां सत्ता के मद में अंधी हो गईं। आजाद भारत के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले इसी दौरान हुए। हिन्दू मान्यताओं, प्रतीकों का मजाक बनाया जाने लगा। संघ और भाजपा अपनी जमीन मजबूत करते रहे, लेकिन सही नेतृत्व न मिलने से भाजपा 2009 में अपेक्षित सफलता न पा सकी थी।

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स्वनामधन्य संपादकों और बुद्धिजीवियों की लगातार, ज्यादातर बेवजह आलोचना से परेशान भारतीय जनता पार्टी ने इस संपर्क के नये तरीके पर ध्यान देना शुरू किया। विदेश गये भारतीयों ने देखा कि कैसे भारत की कांग्रेस की अगुआई वाली सरकारें जनता को ही दरकिनार कर रही हैं। अमेरिकी में बैठे तकनीक के अगुआ भारतीयों ने राष्ट्रवाद के पक्ष में माहौल बनाना शुरू किया। तब भी कांग्रेसी इकोसिस्टम ने प्रवासी भारतीयों का मजाक ही उड़ाया। इस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगातार जनता से बात करता रहा। बिना किसी ट्विटर या फेसबुक जैसे जनता के माध्यम के सुबह-शाम की शाखा और बौद्धिक के जरिये देश की जनता से लगातार अपना संपर्क बढ़ाता गया और उसी बढ़े संपर्क के आधार पर राष्ट्रीय विचार का प्रभाव, प्रवाह बढ़ता चला गया। उधर गुजरात में नरेंद्र मोदी लगातार कांग्रेस से हटकर एक अलग सरकार को मजबूती से चला रहे थे। देश के दूसरे हिस्सों में भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकारें सलीके से चल रही थीं और स्वनामधन्य संपादकों और बुद्धिजीवियों के भाजपा को मुसलमानों को खा जाने वाली पार्टी के तौर पर प्रचारित करने के बावजूद राज्यों की भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया। गुजरात में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार नरेंद्र मोदी की अगुआई में लगातार बिना दंगों के चलती रही। गोधरा की प्रतिक्रिया में हुए गुजरात के दंगे इसका अकेला अपवाद रहे। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी को आतताई बनाने वाले लेख लिखे जाते रहे। इस सबका असर सामाजिक मीडिया के माध्यम से देश की जनता पर मोदी के पक्ष में प्रभाव हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी ने नये भारत से बात करना शुरू कर दिया था। अमित शाह पहले गुजरात में नरेंद्र मोदी के सिपहसालार के तौर पर और फिर उत्तर प्रदेश के प्रभारी, उसके बाद भाजपा अध्यक्ष के तौर पर पूरी भाजपा के प्रतिक्षण तैयार राजनीतिक पार्टी के तौर पर तैयार करने में कामयाब रहे। जमीन पर हर तरह के जातीय, सामाजिक गणित की काट खोजते रहे और हर आधुनिक मंच पर नरेंद्र मोदी जब नये भारत से बात कर रहे थे, उनको सपने दिखा रहे थे, उनके सपनों को सच बनाने की योजना बना रहे थे तो देश की दूसरी पार्टियां सिर्फ इसी भ्रम में जी रही थीं कि मुसलमानों और दलितों, यादवों के मत न मिलने से कैसे भारतीय जनता पार्टी कभी भी 272 का जादुई आंकड़ा पार नहीं कर सकती। यहां यह बात सबके ध्यान में जरूर रहे के सामाजिक न्याय के आवरण में पली-बढ़ी घोर जातिवादी पार्टियों-  समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल- ने 2004 और 2009 में कांग्रेस की सरकार बनाने में मदद की थी।

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आजादी के बाद से लगातार काम करते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जनता में जो भरोसा बनाया था और उसके जरिये अपनी बात पहुंचाने की जो ताकत हासिल की, कांग्रेसी इकोसिस्टम की मदद से खड़े और बड़े हुए स्वनामधन्य संपादकों और बुद्धिजीवियों ने संघ की उस क्षमता को प्रोपागैंडा मशीनरी कहकर दुष्प्रचार किया, लेकिन नया मीडिया संपादकों की मठाधीशी खत्म कर रहा था। संपादक नये मीडिया पर आवरणविहीन हो रहे थे, लगातार पिट रहे थे। और, नए भारत ने 2014 में भारतीय जनता पार्टी को अकेले पूर्ण बहुमत देकर आजाद भारत में तैयार किए गए सबसे बड़े झूठ को बेनकाब कर दिया, लेकिन कमाल देखिए कि इससे भी न तो कांग्रेस ने सबक लिया और न ही उसके तैयार किए स्वनामधन्य संपादकों और बुद्धिजीवियों ने। 2019 के चुनाव में भी जातीय गणित के साथ मुसलमान जोड़कर मजे से कांग्रेस अगुआई वाली सरकार बनाते रहे। पहले एमवाई यानी मुसलमान-यादव, डीएम यानी दलित-मुसलमान और जब सपा-बसपा मिल गए तो डीएमवाई यानी दलित मुस्लिम यादव जोड़कर बताया कि कैसे भाजपा को उत्तर प्रदेश में कुछ सीटें मिलना भी असंभव है। बिहार में तो ऐसे बुद्धिजीवी एक और गणित लेकर आए थे जो पहले  बेरोजगारी का आंकड़ा गिनाते रहे और नरेंद्र मोदी देश के सबसे निचली पायदान पर खड़े भारतीयों को भारत सरकार की योजनाओं से सीधा लाभ देना शुरू किया। इस दौरान जब भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, राममंदिर बनाने की बात करते तो कांग्रेस सहित जातीय गणित के दंभ में डूबी पार्टियां और उनके समर्थक बुद्धिजीवी राममंदिर का मामला किसी भी हाल में रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर रहे थे कि इससे भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को फायदा हो सकता है। गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जनता ने संकेत दिया कि सरकार से जनता नाराज तो होती है, लेकिन सकारात्मक राजनीति के पक्ष में ही रहती है। कांग्रेस सहित दूसरी विपक्षी पार्टियों ने नये भारत पर ही सीधे सवाल खड़ा करना शुरू कर दिया कि ईवीएम ही खराब है। तकनीक से दुनिया जीतने वाले नये भारत को विपक्ष की ऐसी हरकतें चुभ रहीं थीं और नतीजा 2019 का प्रचंड बहुमत रहा। अब इस प्रचंड बहुमत की नरेंद्र मोदी सरकार से बहुत स्पष्ट उम्मीद हैं। विकास, तरक्की जरूरी है, सबका साथ सबका विकास इसीलिए लोगों को लुभाता है। भारतीय सांस्कृतिक गौरव के लिए अयोध्या में राममंदिर निर्माण की उम्मीद भी सबका साथ, सबका विकास में जुड़ी हुई है। नये भारत ने नरेंद्र मोदी को जिताया है और नया, विश्व में सामर्थ्यवान देश के तौर पर पहचान वाला भारत बने, यही इन नये भारत की चाहत है।

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