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गांधी जी सार्धशती विशेष : वायवीय आदर्शों और भावुक प्रतिक्रियाओं का द्वंद्व

प्रिणामों के आधार पर व्यक्ति अथवा विचार के आकलन की प्रवृत्ति बहुत सहज है, और प्रभावी भी। जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सिद्धांतों की सवारी की जाती है अथवी निर्णयों की नींव रखी जाती है, यदि उन्हें प्राप्त न किया जा सके तो सिद्धांत और निर्णयों को प्रश्नवाचक मुद्राओं का सामना करना ही पड़ता है। गांधी के सिद्धांतों और निर्णयों को परिणामों की कसौटी पर कसने पर कुछ ऐसे निष्कर्ष हाथ लगते हैं, जो उनके बारे में स्थापित मान्यताओं को झकझोर कर रख देते हैं।
गांधी पूरे जीवन अहिंसा के सिद्धांत को लेकर बहुत आग्रही रहे। वह अहिंसा के जरिए शांति, सौहार्द और भाईचारे का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे। क्या अहिंसा के उनके उपकरण ने इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में उनकी कोई मदद की ? अथवा उनका यह आग्रह एकपक्षीय साबित हुआ! क्या प्रतिक्रिया के अभाव की स्थिति ने क्रूरताओं को नए सिरे से परवान चढ़ने के अवसर प्रदान नहीं किए ? गांधीकालीन भारत का अवलोकन करें तो इन संभावनाओं को सिरे से खारिज करना मुश्किल हो जाएगा। परिणाम के पैमाने पर गांधी की अहिंसा को प्रश्नों का सामना करने से बचाया नहीं जा सकता।
इसी तरह विभाजन के निर्णय को स्वीकार करना गांधी का बहुत बड़ा निर्णय था। विभाजन से किन लक्ष्यों की प्राप्ति हुई, इस पर बहस की बहुत गुंजाइश है। विभाजन के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि यह संभावित व्यापक पैमाने पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए किया गया था। लेकिन क्या विभाजन के कारण साम्प्रदायिक दंगे रुक गए। आंकड़ों की गवाही तो इसके उलट ही है। विभाजन के कारण 20 लाख लोग मारे गए, करोड़ों लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। किस साम्प्रदायिक दंगे में इतने बड़े पैमाने पर जनसंहार होता है। एक अन्य तर्क यह दिया जाता है कि हिन्दू-मुस्लिम एक साथ नहीं रख सकते, इसलिए विभाजन जरूरी था, लेकिन इसके लिए तो जनसंख्या को पूर्ण स्थानांतरण आवश्यक था, जो हुआ नहीं। कुल मिलाकर विभाजन का समाधान हत्या के डर से आत्महत्या करने जैसा था।
गांधी जिस सिद्धांत के बारे में सबसे अधिक आग्रह रखते थे और उनके जिस निर्णय को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, वे परिणाम के पैमाने पर बुरी तरह विफल हुए। कुछ मायनों में तो उनके सिद्वांतों और निर्णयों ने विपरीत परिणाम दिए। इसलिए परिणाम को आधार मानकर किए जाने वाले आकलन तो गांधी को वायवीय आदर्शवादी ही साबित करते हैं। वह अपने आदर्शों के सम्मोहन में जी रहे थे। उनके आदर्शो में यथार्थ का निवेश शून्य के बराबर थे। और यथार्थ के धरातल के बिना आदर्श की यात्राओं का औंधेमुंह गिरना तय होता है। गांधी के साथ भी यही हुआ।
प्रश्न यह उठता है कि गांधी ने वायवीय आदर्श के सम्मोहन का शिकार क्यों हो गए। उत्तर मानव-प्रकृति सम्बंधी उनकी मान्यताओं में ढूंढा जा सकता है। गांधी मानव को मूलरूप से अच्छा व्यक्ति मानते थे, जो हमेशा अच्छा सोचता है और अच्छा ही करता है। यह हॉब्स जैसे पश्चिमी राजनीतिक विचारकों के ठीक विपरीत थे। हॉब्स के अनुसार आदमी स्वभाव से ही बुरा होता है, बुरा ही सोचता है और बुरा ही करता है। यह दोनों अतियां है।
भारतीय चिंतन तो मानव-प्रकृति को त्रिगुणात्मक मानता है-सत, रज, तम। प्रत्येक व्यक्ति में यह प्रवृत्तियां रहती है। प्रत्येक व्यक्ति में किसी एक प्रवृत्ति की प्रधानता होती है, अन्य प्रवृत्तियां देश-काल-परिस्थिति के अनुसार अभिव्यक्त होती हैं। इसलिए एक ही व्यक्ति की अलग-अलग परिस्थिति में अलग-अलग मनःस्थिति रहती है। भारतीय चिंतन मानता है कि व्यक्ति अच्छाई या बुराई की स्थिर इकाई नहीं है। इसलिए मानव अथवा मानव-समुदाय के बारे में एक स्थिर अवधारणा बनाना भ्रामक है। दुर्भाग्य यह है कि भारतीयता के प्रति अपने आग्रहों के बावजूद गांधी मानव-प्रकृति को उसकी सम्पूर्ण जटिलताओं के साथ स्वीकार नहीं कर सके। उनके सैद्धांतिकी और निर्णयों के विफल होने का कारण यही है।
दुर्भाग्य यह रहा है कि देश को गांधी की सफलताओं-असफलताओं का खुले मन से विवेचन-विश्लेषण करने का मौका नहीं मिला। विभाजन के बाद गांधी की असफलताएं खुली किताब की तरह लोगों के सामने थीं। इस समय उस समय सबसे अधिक असंतोष और शिकायतें भीं गांधी को लेकर थीं। गांधी के वायवीय आदर्शो की सीमाएं हवाओं में तैर रही थीं। इसी बीच गोडसे की तरफ से एक ऐसा कदम उठता है जिसके कारण गांधी के बारे में मुक्तमन से चर्चा होना असंभव हो जाता है।
न्यायालय में गोडसे को लेकर जो बयान हैं, वह पढ़ने जैसा है, और उनकी मान्यताओं को समझने में सहायक भी। उस पर भी खुले मन से चर्चा होनी चाहिए। लेकिन यह प्रश्न तो बना ही रहेगा कि उनकी भावुक प्रतिक्रिया के कारण क्या उस राष्ट्र-धर्म-संस्कृति की बेहतरी में कोई सहायता मिली, जिसके लिए वह अपना सर्वस्व अर्पण करने की बात करते हैं।
परिणामों के आधार पर गांधी के आकलन से उनकी एक अलग तस्वीर बनती है। यदि गोडसे का भी आकलन इसी आधार पर करें तो यह स्पष्ट हो सकेगा कि उन्होंने इस सभ्यता-संस्कृति को कितनी लाभ-हानि पहुंचाई। गोडसे के मन मंे चाहे जैसी भावनाएं रही हों, लेकिन उनके एक भावुक कदम ने इस देश की संस्कृति और उसकी संवाहक शक्तियों के सामने एक जटिल स्थिति पैदा कर दी। विरोधियों को ऐसे आख्यान रचने के मौके दिए जो देश-धर्म के खिलाफ थे। नैतिक धरातल पर हम अन्यों के बराबर आ गए। सफाई देने की एक ऐसी मुद्रा ओढ़नी पड़ी, जो अब भी हमारे सिर पर भार के रूप में सवार है।
वायवीय आदर्शो और भावुक प्रतिक्रियाओं के द्वंद्व से यह देश आज भी संतप्त है। एकदम उदात्त नारे या निकृष्ट फौरी प्रतिक्रिया हमारा स्वभाव बन गई हैं। इन दोनों अतियों के बीच सच कहीं कोने में सिसक रहा होता है, सच को सामने लाने वाली साधना दम तोड़ जाती है। दीर्घकालीन रणनीति और संयम की बात पीछे छूट जाती है, वाग्वीर जीभ से तलवारें भाजकर ही युद्ध का निपटारा कर देते हैं। देश को इस द्वंद्व से बाहर निकालने की जरूरत है। सत्य को चरम मूल्य के रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता तो है ही,  जरूरत उसे प्रतिष्ठित करने की साधना को एकरेखीय और एकवेगीय मानने के भ्रम से बाहर निकलने की भी है।

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