विश्व के हर समाज में चेतना और जड़ता का चक्र अनवरत चलता रहता है| चेतना के उत्कर्ष के काल में समाज प्रगति करता है| समाज के सभी व्यक्ति सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक और अध्यात्मिक रूप से विकास करते हैं| लेकिन अनेक कारणों से समय के साथ यह चेतना मंद पड़ने लगती है| समाज में समग्रता और समरसता का भाव कमज़ोर पड़ता है| परिणामस्वरूप, राष्ट्रीय एकात्मता का भाव भी क्षीण होने लगता है| दुर्भाग्य से, भारत जब ऐसी अवस्था से गुजर रहा था तभी भारत पर विदेशी हमले भी हुए| भारत का पूरा सामाजिक और शैक्षिक ताना-बाना बिखर गया|
अंग्रेजों के शासन काल में तो भारतीय समाज को वास्तविक शिक्षा से वंचित रखने के लिए व्यापक शासकीय प्रपंच भी रचे गये| ब्रिटिश शासन की नीति के आने से पहले भारत में सर्वसुलभ शिक्षा की उन्नत स्थिति को गांधीवादी चिन्तक धर्मपाल ने अपनी पुस्तक “एक रमणीय वृक्ष: 18वीं सदी के भारत में स्वदेशी शिक्षा” ( द ब्यूटीफुल ट्री: इंडीजेनस एजुकेशन इन 18th सेंचुरी इंडिया) में बाकायदा सांख्यकीय डाटा के माध्यम से प्रस्तुत किया है| लेकिन, विदेशी शासन में स्वदेशी पद्धति को हतोत्साहित करके के अंग्रेजी पद्धति को हम पर थोपा गया| सदियों तक चले इस पूरे घटना क्रम में सबसे अधिक अगर किसी वर्ग की क्षति हुई थी, तो वह स्त्री वर्ग ही था| स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा का क्रम बाधित होने के कारण समाज में एक अभूतपूर्व असंतुलन देखने के लिए मिल रहा था|
लोपमुद्रा, अपाला, गार्गी , मैत्रेयी, लीलावती जैसी ब्रह्मवादिनियों और विदुषियों के देश में स्त्री-शिक्षा का संकट आ चुका था| लेकिन भारतीय जिजीविषा का चमत्कार यही है कि यहाँ संकट स्थायी नहीं रहते, वे सामाजिक इच्छाशक्ति के सामने देर सबेर टूट ही जाते हैं| बाबा साहेब भीम राव रामजी आंबेडकर ने कहा था कि भारतीय समाज के कलेवर और मानस में वह लचीलापन है जिसके कारण अपने दोषों को दूर करने के लिए संशोधन का स्थान बना ही लेता है| समय समय पर महान विभूतियाँ भारतीय समाज के बीच में से उठ कर आती हैं जो समाज को नयी दिशा देने का काम करती हैं|
19 वीं सदी में महाराष्ट्र में सावित्रीबाई फुले नाम की एक मशाल जली जिसने अपने प्रकाश से अज्ञान के अंधियारे दौर को चुनौती देते हुए स्त्रियों की आधुनिक शिक्षा का एक विशेष उदाहरण प्रस्तुत किया| जिसका गहरा असर आज भी हमारे चिंतन और विचारों पर पड़ता है| श्रीमती सावित्री बाई फुले जी की आज 191 वीं जयंती है| समाज सुधार के लिए उनके द्वारा उठाये गये कदम न केवल उनके दौर की पृष्ठभूमि में महान थे बल्कि आज भी वे हमारे लिए प्रेरणा के स्रोत हैं और प्रासंगिक बने हुए हैं|
महाराष्ट्र के सतारा जिले के नईगाँव कस्बे में कन्दोजी नवेशे पाटिल और लक्ष्मी पाटिल के घर में 3 जनवरी 1831 को जन्मी सावित्री बाई का मात्र 9 वर्ष की आयु में विवाह कर दिया गया| बाल विवाह का दुर्भाग्य तो उनके हिस्से आया लेकिन उनके पति ज्योतिबा के उदार विचारों और स्पष्ट सुधारवादी सामाजिक सोच के प्रभाव के कारण सावित्री बाई आगे चल कर अनेक महिलाओं को बाल विवाह से बचाने और उनमे शिक्षा प्राप्त करने की भूख पैदा का माध्यम बनीं| उनके पति ने पहले उन्हें पढाया और बाद में अपने द्वारा खोले गये स्कूल का संचालन उनके ही जिम्मे छोड दिया| मात्र 17 वर्ष की आयु से ही उन्होंने बड़े संघर्षमय ढंग से लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल का संचालन किया| हमें यह याद रखना होगा कि यह वह दौर था जब न केवल हमारा देश अंग्रेजों के शासन की बेड़ियों में जकड़ा था, बल्कि यह वह दौर भी था जब सामाजिक भ्रमों का संस्थानीकरण हो चुका था और रूढियों में ही देखने की कोशिश की जाती थी| ऐसी ही एक प्रबल रूढ़ि थी कि महिलाओं को शिक्षित नहीं किया जाना चाहिए, और उनका जल्द से जल्द विवाह करके ‘बोझ’ से मुक्त हो जाना चाहिए|
सावित्री बाई ने इस रुढ़िवादी सोच के विरुद्ध आवाज़ उठाई और अपने द्वारा खोले गये विद्यालय में महिलाओं की शिक्षा की व्यवस्था किया| हम 19 वीं सदी के समाज को देखते हुए कल्पना कर सकते हैं कि उनको किस स्तर के विरोध का सामना करना पड़ा होगा| बताया जाता है कि जब वे स्कूल में छात्राओं को पढ़ाने जाती थीं तो उनके ऊपर पत्थर फेंके जाते थे| महिलाओं की शिक्षा की लड़ाई उन्होंने उस समय मे लड़ी जब समाज जीवन मे महिला के सभी अधिकारों पर बहस करना भी कठिन था।वास्तव में विदेशी आक्रमणों के कारण भारतीय समाज मे महिलाओं के लिये बहुत सारी पाबन्दियों का समाज व्यवहार में प्रचलन बढ़ गया उस कालखंड में एक महिला ने उन परिस्थितियों को समझ कर एक नई क्रांति का सूत्रपात करने का संकल्प लिया ।
वर्ष 1998 में उनके सम्मान में उनके नाम डाक टिकट जारी किया गया था| उनके इसी योगदान को देखते हुए वर्ष 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नामकरण सावित्रीबाई फुले के नाम पर किया|
हम देखते हैं कि समस्याओ की चर्चा बहुत लोग करते है परन्तु वह केवल चर्चा या सवेंदना प्रकट करके ही अपना कार्य पूर्ण मान लेते है।परन्तु सावित्रीबाई फुले तो किसी ओर ही मिट्टी की बनी थी। उन्होंने उस समय के समाज मे महिला की मर्मान्तक कहानी को न केवल सुना अपितु स्वयम के जीवन मे उसकी अनुभूति भी की। मनुष्य द्वारा निर्मित भेदभाव के सभी दंशों को उन्होंने झेला भी, अपने स्वयं की संघर्ष यात्रा ही वास्तव में इस शिक्षा क्रांति की वह मशाल बन गई जिसके आलोक में यह महान योद्धा चल पड़ी एक नया इतिहास बनाने।
ज्योतिबा एवं सावित्रीबाई ने यह जीवन ध्येय लेकर कि अपने देश और समाज को सुधारने का मार्ग महिला उत्थान से ही होगा उसको ही अपना दर्शन बना लिया। देखते ही देखते सावित्री बाई महिला शिक्षा की अगुआ बन गई । स्वयं का शिक्षा रूपी दीप जलाकर केवल स्वयं के अंधकार को मिटाने में नही अपितु ‘एक दीप से जले दूसरा दीप’ के भाव के साथ उन्होंने महिलाओं के अंधकार को हरने का कार्य किया।आज जब हम उनकी जयंती मना रहे है तो यह बहुत प्रासंगिक हो जाता है कि हम यह चिंतन जरूर करे कि क्या सही मायने में आज आधुनिक भारत मे महिलाओं की परिस्थिति कैसी है?
उसकी शिक्षा, सुरक्षा,सम्मान,स्वास्थ्य, आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं स्वाभिमान की स्थिति कैसी है? समाज मे एक महिला के लिये क्या जीवन में उन्नति करना और आत्म-विकास करना सहज है? क्या वह अपने निर्णय स्वतंत्रता के साथ कर सकती है? इन प्रश्नों को विमर्श में लाने से ही हम यह समझ पाएंगे कि समाज जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं के लिये अनुकूल वातावरण हम दे पा रहे है अथवा नहीं ।शिक्षा के व्यापक अवसर तो अब निसन्देह मिल रहे है परन्तु क्या वह सुरक्षित होकर अपनी कल्पनाओं को साकार करने के लिये बन्धन-मुक्त है?
सही मायने में आज जब हम सावित्रीबाई जी को उनकी जयंती पर महिला शिक्षा और उत्थान की अग्रदूत के रूप में याद कर रहे है तो वर्तमान में हम सावित्रीबाई से प्रेरित होने के कारण अपने आप से अपेक्षित सक्रिय भूमिका से मुक्त नही हो सकते।एक व्यक्ति, संगठन या समाज का हिस्सा होने के नाते महिलाओं के लिये ऐसा सकारात्मक वातावरण बनाने में सभी को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ेगी।यह भी सत्य है कि यह परिवर्तन केवल महिला के जीवन सुधार से ही नही होगा बल्कि पुरुष वर्ग को भी अपने दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन करना पड़ेगा| जिस प्रकार ज्योतिबा फुले ने सावित्रीबाई फुले जी को अवसर दिया और सावित्रीबाई फुले ने उस अवसर का प्रयोग महिलाओं को शिक्षित करने का माहौल तैयार करने के लिए किया| आज के समय की आवश्यकता यही है कि उनके जीवन से प्रेरणा लेकर हम महिलाओं को आगे बढ़ने के समान अवसर प्रदान करें और महिलाएं विशेषकर युवतियां अवसर का उपयोग कर सकें इसके लिए एक सकारात्मक वातावरण तैयार हो|
इतिहास साक्षी है कि जब भी नेतृत्व भारतीय नारी के हाथ में आया है तो हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का मान सम्मान बढ़ा ही है| भारत के विकास और उसकी सर्वांगीण समृधि का मार्ग स्त्री की समृधि और विकास से ही संभव है| आइए एक मन्त्रदृष्टा महिला शिक्षा की अग्रदूत पूज्य सावित्रीबाई फुले की जयंती पर उनके विजन के भारत का स्वप्न पूरा करने के लिये प्राणपन से जुट जाएं।
“नहीं है अबला, है यह निर्भया
यह साहसी नारी है स्वयंसिद्धा’’
( लेखक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री हैं)